पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१५७

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पुछि चंद बरदाइ नैं ! चित्ररेख उतपत्ति ।। छ हुसेन ब्रावास कहि । जिम लीनी असपत्ति ।।१। और भोलाराय समर्थ १२' में पिछले दीर्घ अन्तर के बाद शुक, शुकी का प्यार करते हुए, ईच्छिनी और पृथ्वीराज के विवाह की अादि से अन्त तक की गाथा का वर्णन सुनने के लिये कहता हुआ पाया जाता है : जपि सुको तुक पेम करि । अादि अंत जो बच ।।। इच्छिनि पिथ्थह व्याह विधि | सु सुनंते गत ।।२ ; इस प्रस्ताव के अन्त तक विवाह नहीं हो पाया थी कि अचिन्त्य रूप से छोरी का युद्ध बीच में आ जाता है, जिसके वर्णन की समाप्ति सलई जुद्ध समयौ १३' के अन्तिम छन्द में शुक-शुकी के वार्तालाप में होती है : , सुकी सरस सुक उच्चरिय । प्रेम सहित आनंद ।।। चालुक्कां सोझति सध्वौ । सारु है में चंद ।।१५६ चौदहवें समय में नींद न आने वाली शुकी की पुन: जिज्ञासा पर शुक, इच्छिनी-विवाह का वर्णन विस्तार से सुनाने के लिये सन्नद्ध हो जाता है : कहै सुकी सुक संभलौ । नींद न आवै महि ।। रय निरवांनिय बंद करि । कथं इके पूछो तोहि || १ सुकी सरिस सुक उधरथौ । धरयौ नारि सिर चस ।।। सयन संजौविध संसरै ! मन मैं मंडिय हित ।। २ धन लौ चालुक संध्यौं । बंध्यौ घेत घुरसान ।। इंछनि व्याही इछ करि । केहों सुनहि दै कांन । ३, इच्छिनी के घर पृथ्वीराज, धन-प्राप्ति , चालुक्य-थिजये और ग़ौरी-धन्धन के कारण अधिक यशस्वी अस्तु अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक हो गये हैं । इसकी चर्चा करके कदि ने अबू-कुमारी के विवाह में अधिक रस पैदा कर दिया है । इसी समय के बीच में शुकी, शुक से इच्छिनी का नख-शिख पूछती हुई पाई जाती है : बहुरि सुकी सुक स क है । अंग अंग दुति देह ।। इछनि अंछ बषांनि कै । महि 'सुनावहु एह ।। १३७, और प्रियतम शुकी को रानी के अंग और रूप-सौन्दर्य का वर्णन सुनातेसुनाते सारी रात्र व्यतीत हो जाती है : सुनत कथा अछि तरी । गइ रत्तरी विहाई ।। दुज्जे कही दुजि संभरिय । जिहि सुष श्रवन सुहाइ ।। १६३