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शुक- शुकी का वक़ा और औदा रूप अभी तक विधि पूर्वक श्राद्यपान्त केवल इसी प्रस्ताव में देखने को मिलता है। यो के भुगल जुद्ध प्रस्ताव १५', *पुण्डीरी दाहिमी विवाह नम प्रस्ताव १६’, ‘भूमि सुपन प्रस्ताव १७ अौर ‘दिल्ली दान प्रस्ताव १८' के वर्णन शुक-शुकी की बात के बिना ही बढ़ते हैं । माधव भट कथा पातिशाह अहन जो विजय नाम उनविंसमो प्रस्ताव की समाप्ति' पर द्विज-द्विजी रूप में शुक-शुकी का फिर उल्लेख होता है, जिसमें द्विजी, पृथा का विवाह, शाह का वन्दी होना और धन प्राप्ति को ‘विरात्ति' (<विगत=कथा) पूछती है : | दुञ्जिय सु बद्दिय प्रति दुजह । प्रिथ्था व्याह विगसि ।। | किमि फिर बंध्यौ साह रिन । किम धन लद्ध मुमत्ति । २५१, परन्तु द्विजी रूपी शुकी की जिज्ञासा को मूर्ति का प्रसंग ‘प्रिथा यह समय २१’ से प्रारम्भ होता है जिसके पहले समुद्रशिखर की राजकुमारी के विवाह की कथा शुक-शकी प्रश्नोत्तर के प्रवाह के बीच में बाधक होकर आती है । बीसवें पदमावती समय में भी ( केवल ) शक शाता है परन्तु इस बार प्रणय का दुत बन कर । प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व के कवि-कल-गुरु कालिदास ने अपने 'मेघदूत' 1 में मेव को, 'महाभारत' और ‘कथासरित्सागर' से नल-दमयन्ती अयान को अलौकिक काव्य-रूप देने की प्रेरणा पाकर कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र के कवि श्रीहर्ष ने अपने नैपधीयचरितम् में हंस को तथा १. सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियाया: | सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य । मन्तव्या ते सुतिरलका नाम यक्षेश्वराण. | वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम् ।। ७, पूर्वमेघः । । अर्थात्----तुम्हीं अकेले संसार के तपे हुए प्राणियों को शीतलता प्रदान करने वाले हो. अस्त हे मेघ ! कुवेर के कोप से बहिष्कृत, अपनी प्रियतम! से सुदूर हटाये हुए मुझ विरही का सन्देश मेरी प्रिया . तक पहुँचा दो। यह सन्देश लेकर तुम्हें यक्षेश्वर की अलका नामक पुरी को जाना होगा, जहाँ उक्त नगरी के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिव-मति के सिर पर जड़ी चन्द्रिका से भवनों में सदा जला रहता है। 7 ३. अथ भीमसुतावलोकनै: सकलं कर्तहस्तदेव सः ।। क्षितिमराइल मर्डननायितं नरार कुण्डिनमण्इजो ययौ ।। २,६४ ; • । अर्थात्-राजा नल का प्रणय-सम्वाद लेकर हंसः उसी दिन दमयन्ती