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१ १४६ ।। बारहवीं शताब्दी के बंगाल के राजा लक्ष्भसेन के कवि धौयी ने अपने “पवनदूत' में पवन को प्रणय-दूत बनाया था, वब चंद के लिये उक्त कार्य हेतु शुक की नियुक्ति कवि-पपराश्रित ही थी । | अव रालोका के पझवती समय २० ॐ प्रणाय-दूत का कौशल और साथ ही कवि-चातुर्य भी देखते चलना चाहिये. समुद्रशिखरगढ़ की राजकुमारी राज-उद्यान से एक शुक को पकड़ लेती हैं और उसे अपने महल में नग-णि जटित पिंजड़े में रखती है : सचिन सँग खेलत फिरत ! महलनि बाग निवास ।। कर इक दियि नयन । तब मन भय हुलास ||८ तथा ६, अौर फिर उसका चित्त शुक की ओर कुछ इस प्रकार में जाता है कि बुह सारे खेल क्लङकर उसे रस-रान पढाया करती है : तिही महत रयत भई ? गइय खेल सब भुल्ल !! चिस चहुट्टयौ कीर सौं। म पढ़ावल कुल्ल ।। १० ‘कादम्बरी' और 'पद्मावत' (जायसी) के एक की भाँति रासो का इस स्थल का शुक यू से ही बाचाल नहीं है, परन्तु अगे तो जैने उसका कंठ एकदम खुल जाता है । अझावती के रूप, गुरु आदि देखकर वह अपने मन में विचार करता है कि यह धृथ्वीराज को मिल जाय तो उचित हो : कीर कैबरि तन निरपि दिग्नि । न सिप ल यह रूप ।। करता करी बनाय कै । यह पदमिन सरूप ॥११, तथा के दर्शन से अपने को सफल करने की कामना लिये, भूमण्डल के अलङ्कारः सदृश कंडिनपुर को प्रस्थित हुआ ।। ३. सारंगाच्या जनयति न यद् भस्मसादंगकानि वदिश्लेचे स्मरहुतवह: श्वास संधुक्षितोऽपि । जाने तस्याः स खलु नयनद्रएिवारा प्रभावों यद्वाशश्वद्रूप तब मनोतिन: शीतलस्य ।। ५७५ : । अर्थात्-(मालवाचल की गन्धर्व-कन्या कुवलयावती ने राजा लक्ष्मण सेन के रूप पर मोहित होकर उनके चले जाने पर पवन दुत' द्वारा अपना विरह सन्ताप प्रेषित किया । पवन कहता है-- हे राजन् ! तुम्हारे वियोग में यह कामरूपी अनि, श्वास के पन ले सुतगाई जाने पर भी उत मृगनयनी के कोमल अंगों को जलाकर राख नहीं कर देती इसके दो ही कारण संभव हैं--- एक तो उसके सुन्दर नेत्रों से अनवरत अश्रुधारा बह रही है और दूसरे तुम्हारी शीतल भूति उसके हृदय में प्रतिष्ठित हैं ।