पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१५०)

________________

उँमा प्रसाद हर हरियत । मिलहि राज प्रथिराज जिये ॥१३ फिर क्या था, शुक का दूत-कम हुरम्भ हो जाता है । पद्मावती द्वारा अपना देश धूछे जाने पर वह कहता कि मैं हिन्दुओं के दिल्ली-गढ़ का निवासी हूँ, जहाँ के शासक सुभटों के सम्राट पृथ्वीराज मानों इन्द्र के अवतार हैं : उच्चरिय कीर सुनि बयनं । हिंदवान दिल्ली गढ अयनं ।। तहाँ इंद अवतार चहुवांन । तह प्रथिराजह सूर सुभारं ||१५, और पृथ्वीराज के नाम का सूत्र 'पकड़ते ही वह चतुर दूत दिल्लीश्वर के सौन्दर्य और शूरता की प्रशस्ति पढ़ चलता है ( छं० १६-२२ }, जिसके पद्मावती के हृदय पर वांछित प्रभाव की सूचना देने में कवि नहीं चूकता : सुनत श्रवन प्रिराज जस । मग बाल विधि अंग ।। तन मन चित्त चहुवाँन पर । बस्यौ सु तह रंग ।।२३। मुग्धा-मोहितः राजकुमारी जब कमायें के राज कुमोदमन के साथ अपना विवाह होने और वारात अाने की बात सुनती है ( छं० २४-३१ ) तब वह बिसूरती हुई शुक के पास एकान्त में जाकर उसे दिल्ली से चौहान को शीघ्र लाने की बात कहती है : पदमावत लिधि बर बाल बेली । कही कीर सों बात होइ तब केली ।। झटं जहु तुम्हें की दिल्ली सुदेस । बरं बाहुबानं जु अनौं नरेसे ।।३२, तथा ज्यौं रुकमनि कन्हर बरी' द्वारा अपने पत्र में प्रेरणा देती हुई, शिवपूजन के समय अपना हरण करने का मंत्र भी लिख भेजती है : ज्यों रुकमनि कान्हर बरी । ज्यों बरि संभरि कति ।। शिव मंङ्गप पच्छिम दिसा । पूजि समय स माँत ।।३५ और कार्य-कुशत-पटु वह शुक-दूत अाठ प्रहर में ही दिल्ली जा । पहुँचता है : लै पत्री सुक य चल्यौ । उड्यौ गगन गहि बाव || जहँ दिल्ली प्रथिरा नर । अ६ जाँस में जान ।।३६, पृथ्वीराज पत्र पाकर, शक के दौत्य पर रीझते-मुसकारते, प्रेम के अभयदान की अकांक्षिणी के प्राण हेतु प्रस्थान की योजना में लग जाते हैं । दिय कागर नप राज कर । पुलि बेचिय प्रथिराज ।। सुक देषत मन में हँसे । कियौ चलन को साजे ||३७ और जिस प्रकार जायसी के ‘पदमावत' का शुक सिंहलद्वीप की राज.