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कुंभारी पद्मावती को योभी रूप में उसी के हेतु आये हुए चित्तौरू के राजा रतनसेन का वरण करने के लिये प्रेरित करता है ( १९–पदमावतीसुया-मेंट खंड ) : तुम्ह बारी रस जो जेह, कॅबलहि जस अरघानि ।। तस तूरुज पर गास कैं, भौंर मिलाए अनि ।१४ , अथवा जिस प्रकार पृथ्वीराज राठौर की 'वेलि क्रिसन रुकमणी ? का ब्राह्मण' दूत द्वारिकापुरी से कृष्ण को लाकुर रुक्मिणी को सूचना द्वारी आश्वस्त करता है : सँग सन्त सखीजण गुरजण स्यामा | मनसि विचार अकेही महन्ति । कुसस्थती होता कुन्दपूरि । क्रिसन १धारया लोक कहन्ति ।।७३, उसी प्रकार अपनी प्रतीक्षा में अातुर समुद्र शिखर की विरह-विधुर। राजकुमारी को सो का शुक अपने सम्वाद से हर्ष-विह्वल कर देता है : दिषत पंथ दिल्ली दिसाँन ! सुष भयौ सूक जब भिल्यौ अनि ।। संदेस सुनते आनंद मैंन । उमरिय बाल मनमथ्थ सँन ।। ४२, और अल्हाद-पूरिता राजकन्या श्रियतम से मिलन हेतु अपने शृङ्गार में तन्मय हो जाती हैं : तन चिकट चीर डायौ उतारि । मज्जन मयंक नव सत सिंगार || भूषन मॅगाय नष सि अनूप सजि सेन भनों मनमथ्थ भूप ||४३ कहने की आवश्यकता नहीं, अपहरण और युद्ध के उपरान्त प्रणयिनी अपने अभीष्ट बर के साथ दिल्ली के राजमहल में विलास करती है। इस प्रकार देखते हैं कि रासो में शुक को प्रश्य-दूत बनाकर कवि ने अपना कथा-कार्य साधा है। परन्तु इस कथा-सूत्र को रासो की पुरातनता की एक आधारशिला बनाकर चलते हुए हमें डॉ० दशरथ शर्मा की शोध थान में रखनी है। उन्होंने अपने ‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान की रानी पद्मावती' शीर्षक लेख में सं० १४५५ वि० में राजा अखैराज के अाश्रित कवि पद्मनाभ द्वारः रचे गये ‘कान्हड़ दे प्रबंध के आधार पर सिद्ध किया है कि पृथ्वीराज की रानी पाहल की पुत्री पद्मावती किसी राज्य-प्रधान के हनन का कारण बनी थी और उसके इस कार्य से चाहनान राज्य को अत्यधिक क्षति पहुँची थी। उनका अनुमान है...अपरोक्ष रूप से चाहमान-साम्राज्य के सर्वनाश १. मरु भारती, वर्ष १, अंक १, सितम्बर १६५२ ३०, ० २७-८;