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१ १५७ ) इह चरित दुज देख्रि है । पछ जुबिगनिपुर जाई }}११३ सैंतालिस लुक वर्णन समय में मदन ब्राह्मणी के घर में पढ़ने वाली संयोगिता तथा अन्य कुमारियों की तुलना क्रमश: चन्द्रमा और ताराराणों से करते हुए ( ॐ० १ ), पूर्द 'समय' वर्णित शक-शुकी दम्पति के दिल्ली की ओर उड़ने का वर्णन अाता है : इति हसूफालय छंद । गुर च्यार नभ जिम चंद !! उड़ि चले दंपति जोर | चितइ स पिथ्थह् र {{४ अौर छ० ५; और शुई का ब्राह्मण-वेश में पृथ्वीराज के पास जाने का समाचार मिलता है : नर भेष धरि साकार । दुज भेज मुक्कयौ सार ।।। दि धि ब्रह्म भेस अकार १ किये मान अर्धं अपार ॥६ सोई दुज दुजन करे । बहु तरुवर उड़ि जानि ।। सो सहार संजोग किये । तीयह रम्य सु थान ।।७, सम्भलत धवल सर साहुलि सम्म लि, लूदा ठाकुर अलल ।। पिंड बहुरूप कि भेख पालटे, केसरिया ठाहे क्रिरात ।.११३, वेलि; तथा गंगा कर गीताह, श्रवण सुरी अरु साँभली ।। जुग नर वह जीताह, वेद है भागीरथी ।४, राँगालहरी; ढोला मारू रा दूहा' में भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग मिलता है : ढोलइ मनि अारति हुई, सभति है विरतंत। | जे दिन मारू विण' यथा, दई न ग्याँन गित |}२०८, और सम्भवतः तुलसी ने भी अपने मानस में निर्दिष्ट अर्थ में संभारे का प्रयोग किया है : वैदि पितर सब सुकृत सँभारे । जो कछु पुण्य प्रभाव हमारे ।। दोहा २५४ और २५५ के बीच में, बालकाण्ड; शुक-शुकी सम्बन्धित रासो के कई अन्य स्थलों पर ‘संभल का प्रयोग समझना' अथवा 'स्मरण करना के अर्थ में हुआ है; यथा--सुकी कहै सुक संभरी; कहैं सुकी सुक संभलौ; सुक्क सुकीं सुक संभरिय; अदि । । २. शुकी रूपी ब्राह्मणी संयोगिता के पास अभी नहीं जाती जैसा कि सभी वाले रास पृ० १२७५ ) के सुम्पादकों ने इस छन्द के आधार पर लिखा है।