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( १५६ } फिर ये शुक्-शी, द्विज-द्विज के रूप में पृथ्वीराज के पास पहुँच कर उन्हें संयोगिता के प्रति आकृष्ट करते हैं ।। कहै सु दुज दुजनीय । सुनौ संभरि त्रप राजं ।। तीन लोक हम गवन । भवन दिब्धे हम साजे ।। ॐ हम दिष्वि एक । तेह नभ तड्रिक अकारं ।। सद बनिय श्रेत् । नाम संजो कुमारि ।। सिंत पंच कन्य तिन मध्य अव । अवर सोभ तिने समुद बन ।। अकिस मद्धि जिम उइगनिने । चंद विराजै मन भुवन १८, और कान्यकुब्ज की राजकुमारी का रूप, वय: सन्धि, वसंत सदृश अङ्कुरित यौवन तथा नख-शिख अादि का वर्णन करके पृथ्वीराज को उस पर शासक्त कर देते हैं । छं० ६-७७ )। । तदुपरान्त पृथ्वीराज द्वारा मनोवांछित द्रव्य-प्राप्ति का प्रलोभन पाकर, वे शुक-शुकी कन्नौज-दिशा की ओर उड़ जाते हैं और मदन ब्राह्मणी के घर जा पहुँचते हैं : दुजे चले उङ्कि कनवज दिसि । ग्रेह सपत्तिय बँभनिय ।। ७८, और शुकी ब्राह्मण-रूप में संयोगिता से मिलकर, पृथ्वीराज के रूप-गुणानुवाद के प्रति उसे आकृष्ट करती है ( छं०७६-८७ ), जिसके फलस्वरूप राजकुमारी दिल्लीश्वर के वर की अभिलाषा मात्र ही नहीं करती वरन् वैसा न होने पर जल में डूब मरने का निर्णय कर लेती है : यो हृत लीन संदरी । ज्यों दमयंती पुब्ब ।।। के हथ लेबौ पिथ करौं । के जल' मध्ये दुब्ब ।। १०१, तथा दूसरी ओर पृथ्वीराज भी संयोगिता के प्रेम में अहर्निशि चूर हैं : बिय पंगानि कसरि सुनार सुमार' तजि । घरी पहर दिन राति रहैं गुन पिथ्थ भजि || भेद भंजै और जोर मन में लजिहि ।। तषि पुच्छहि त्रिबृ बत्त न तत प्रकास किहि ।। १०२, इस प्रकार देखते हैं कि शुक-शकी इस कथा के श्रोता-वक्ता मात्र हीं नहीं रहते वरन् उसके पात्र बन जाते हैं । अवसर के अनुकूल अपनी रूप १. देउ द्रब्यु मन वंछि। जाइ प्रमुधै तिथे अजं ।। ७८ ; २. जिमि जिमि सुंदरि दुजि बयन | कही जु कथ्थ सँवारि ।।। बरनन सुनि प्रथिराज कौ । भय अभिलाष कुरि ।। ६८;