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तथा उनके रति-विलास की रात्रि के युद्ध से उपमा देते हुए ( छं० १४१४२ और--- मदन बयौ राज । काज मंत्री तिहिं अरगे !! 'हाय' भाय बिमा कटान्छ । भेद से चारि विलग्गै ! काम कमलनी : बनिय चक्कनिय निय नित्यं भर ।। मोह विहि पिझझति | मुज्ज मो मनिय पिंड बर । बीनीति मधुर तिहि लोभ बसि । बसि संजोग माया उरह ।। ऊथपन मग गहि अँगन गति । नृप क्रम सह छुट्टिय बरह ।। १४४), संयोगिता की समुद्र अदि और पृथ्वीराज की हंस श्रादि से तुलना की : दुहु दिसि बढ़िय सनेह सब ! संजोगिय बर कंति ।। जियन बार विछुरत तरुनि ! हंस जुगल विलुरंत ।। १४५ रूप समंद तरंग दुति । नदि सब की भक्ति मानि || गुन मुत्ताहत अघि के । बस किन्नौ च हुन ।। १४६ तथा १४७-४८; ** मरुशतकम् की बधू की भाँति शुक को यहाँ रोकने वाला कोई थम नहीं, अस्तु उसने खूब रस लेते हुए अपनी प्रत्यक्षदर्शिता के प्रमाण सम्यक आरोपों सहित प्रस्तुत किये । । फिर सखियों द्वारा कन्नौज की राजकुमारी की अवस्था, रूए और अनुहार पूछने पर ( छं० १४६ ), उसने इच्छानुसार रमण करने वाली संयोगिता के अंशों पर प्रतीप करते हुए उत्तर दिया : ससि रुन्नौ स्नग वह्यौ । काम हीनौति भीन रति ।। पंकज अलि दुम्मनौ । सुमन सुम्मन पर्यन पति || पतंग दीप लरिंगराय न । मीन दुम्मन जय नेम ।। सुकिय सघिय सुत्र दिष्टं । चित' चितंति ने भ्रम || सुष सक्ति हीन सो दान नृप | हाव भाव विभ्रम् श्रवन ।। य' रति चरित मंगल गवन । सुनि इंछनि ईछनि रमन ॥ १५०, और युग की अनन्य सन्दरी के स्वाभाविक लावण्य का उल्लेख करके ( छं० १५१-६७ ), उसके आकर्षक नेत्रों के वर्णन से अपना प्रकरण समाप्त किया । महारानी ईच्छिनी ने कहाँ तो शुक की नियुक्ति सपत्नी की हँसी उड़ाने के लिये की थी और कहाँ वे उसका रूप-सौन्दर्य सुनकर हतप्रभ होकर ईष्य के सन्ताप-सागर में निमज्जित हो गई ( ॐ० १७०-७३ )। तब शुक ने उन्हें प्रबोधा :