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( १६८ } लिया। तब उसने अपनी चञ्च घुटमौनमुद्रा' ढीली की और नल का उसके प्रति अतिशय म, रूप-विमुग्धता, परवशता, विरह-कातरतः अादि का उल्लेख किया। फिर उसकी सखियों के अ। पहुँचने पर, हंस उससे विदो लेकर नल की राजधानी को प्रस्थित हो गया ।४ विदर्भ पहुँचने पर रजा नल ने हंस से दमयन्ती के वचन कैसे, कैसे इस प्रकार अदिर. पुर्वक पूछकर बार-बार दुहराये और फिर अत्यन्त हर्ष रूपी मधु से मत्त होकर वे बचन स्वयं भी अनेक बार कहे : कथितमपि नरेन्द्रः शंसयामास हंस किसिति किनति मृच्छन् भाषितं स प्रियायाः । अथितमथु सान्द्रानन्दमा ध्वी ऋमत्त: स्वयमपि शतकृत्वस्तत्तथान्वाचचक्षे ।। १३५, सर्ग ३ “वृथ्वीराज-रासो' के शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव २५' का हंस दूत अपने कार्य में 'नैपध के प्रणव-दूत से बहुत सादृश्यता रखता है। देवगिर का नट दिल्ली दरबार में अाया ( छु १५-१६ ) और पृथ्वीराज द्वारा पूछने पर कि वहाँ को कुमारी शशिवृता का विवाह किसके साथ निश्चित हुआ है। { छं० १८ }, उसने बताया कि उज्जैन के केसधज्ज राजा के यहाँ सगाई ठहरी है परन्तु राजकुमारी को उक्त वर प्रिय नहीं है ( ॐ० १६-२३ ) । फिर उसके द्वारा शशिदता को मेनका सदृश रूप सुनकर (छं० २४, २६-२७), पृथ्वीराज उस पर अनुरक्त हो गये और नट से उसकी प्राप्ति का उपाय पूछने लगे ( छं० २८)। नट ने यह कहकर कि हे राजेन्द्र, मैं कुछ उठा न रखेंगा, उनसे विदा ली ( छं० २६) । राजा ने शिव से अपना मनोरथ सिद्ध होने का बरदान पाया तथा वषां ऋौर शरद ऋतुये शशिवती के विरह की कामपीड़ा में बिताई और देवगिरि जाने का निश्चय किया (छं० ३२-४५) । उधर जयचन्द्र के भ्रातृज वीरचन्द्र के साथ शशिवता की सगाई का समा चार पाकर एक गन्धर्व देवगिरि गया (छं० ६६} और वन में जहाँ वह अपनी समवयस्कों के साथ क्रीड़ा कर रही थी ( छं० ७० ), वह हेम-हंस के रूप में एक स्थान पर विश्राम करने लगा ; राजकुमारी ने अत्यन्त आश्चर्य से १, श्लोक ८३-६८, वही; २. श्लोक ६६, वही; ३, श्लोक १००५२८, बहीं; ४. श्लोक १२६, बही;