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उसे देखा और बलपूर्वक पकड़ कर उससे पूछा कि तुम कौन हो, तुम्हारा स्थान कहाँ है अौर इस रूप में किस माया से आये हो ? होस ने उत्तर दिया कि मैं मतिप्रधान नामक गन्धर्व हैं, सुरराज के कार्य हेतु ऋाया हूँ और हे बाले, तीनों लोकों में जा सकने की मुझ में शक्ति है : हेम हेस तन रिय । वि पन मध्य विश्राम लियो ! दियि तास शशिव { अतिहि अचरिउज मानि जिये। वल कर नाहिय सु तत्व । हच लें रि तिहि पुछिय। कवन देव तुम थान । कवन माया तन ऋछिय ।। उस्चरयौ होल सोसिंत्रा सम 1 मति प्रधान गन्धर्व हम ।। सुरराज काज अाए करन्न । तीन लोक हम बाल गम ||७१, फिर उसने वीरचन्द्र की आयु केवल एक वर्ष बतल कर ( छं० ७३ ), इन्द्र द्वार। करुणापूर्वक अपने भेजे जाने की बात कही : तेस र है बर बरष इक्क महि । हय गय अनंत कुझिझ हैं समतहि ।। तिहि चार करि तुमहि पै अायौ । करि करुना यह इन्द्र पठायौ ।।७४ ; यह सुन कर स्वाभाविक ही था कि शशिवृता का चित्त उधर से विरत हो गया, और उसने उससे अपने अनुरूप वर यूछा : । तब उच्चरिय बाल सम तेहं । तुन माता सम पिता सनेहं ।। मुझझ सहाय अवरि को करिहौ । पानि ग्रहन दुम चित अनुहरिहौ ।।७५ फिर क्या था, चतुर हंस दूत तो इस तक में था ही, अवसर मिलते ही शूरमाओं के अधिपदि दिल्लीश्वर श्रृथ्वीराज का गुणगान कर चला (ॐ० ७६-७८) । उसे सुनकर शशिवृता ने कहा कि तुम जाकर उन्हें लिवा ला, मैं छै मास तक चौहान की प्रतीक्षा करूगी और इस अवधि तक उनके न आने पर अपना शरीर त्याग दें : तहां तुम पिता कृपः करि जाउ । दिल्ली वै अनुराग उपाउ ।। मांस घट हों वह मंडों । थ्थुना अवै तो तन छुडौं ।। ७. | श्रीमद्भागवत्’ की रुक्मिणी भी तो कृष्ण के प्रति अपने सन्देश में कहलाती हैं--(यदि आप न आये तो मैं व्रत-द्वारा अपने शरीर को सुखा कर प्राण छोड़ देंगी ;:': । जह्यामसूत्रकृशाञ्छतजन्मभि:स्यात् ।। १०-५३-४३ ; | इस प्रकार शशिता को पृथ्वीराज के अनुराग में पागकर, हंस उसके पास अपनी सुन्दरी को छोड़कर उत्तर की ओर उड़ चला और शिनिपुर ज़ा पहुँचा, उसके सुवर्णमय शरीर पर अनेक नगों की शोभा हो रही थीं।