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( १७० ) तब उड़ि चल्यौ देह दिसि उतरि । दिर ससिन्नत रEिG निज संदरि ।। जुगनपुर यि दुज राजे । सोवन देह नग नग साजे ||८ | वन में शिकार खेलते हुए किशोर पृथ्वीराज ने आश्चर्य के साथ इस स्वर्ण हंस को देखा और उसे पकड़ लिया तब उसने राजा से सारी कथा कह दी ; चय किसोर प्रथिराज । रम्य ही रम्य प्रकारे । सेत प विय चैद । कला उद्दित तन सारं ।। विपन मध्य चहुश्रान । हंस दिध्यौ अप अघिय ।। चरण भग्ग दुति होत । हेम पछछी वियलकिये || चिज देवि प्रथिराज बर ! धाइ नूपति बर कर राहिय ।। पुब्ब दुजे गति दूत कथे । रहसि राज सों सब केहिये |८१ तथा ८२, सायंकाल यादवराज के इस हंस दूत ने राजा को एक पत्र दिया ( छं० ८३ ) तथा एकान्त की वांछना करके चुप हो गया ( ॐ ८४ ) । ( अभिलषित परिस्थिति होने पर } उसने चौहान से कहा कि शशिवृता का वर्णन सुनने के लिये शारदा ( सरस्वती ) भी ललचाती हैं : इह अघ्षी चहुअन सों । न तो मार कहि अाइ । सुनिवेको तसिवृत्त गुन । सारदऊ ललचाइ ।। ८८, और सूर्य तथा चन्द्र के उदय और अस्त काल के मध्य में वह इस प्रकार शोभित होती है मानो शृङ्गार का सुमेरु हो : | राका अरु सूरज्ज विच । उदै अस्त दुहु बेर ।। बर शशिवृता सोभई । मन शृङ्गार सुमेर ।। ८९ फिर हंस ने राजकुमारी की बाल्यावस्था व्यतीत होकर किशोरावस्था के आगमन पर शिशिर और वसंत का सायॐ आरोप करके उस अज्ञातयौवन का रूप-चित्र खींचा : ससिर अंत न बसंत ! बालह सैसब गम ।। अलिन पंप कोकिल सुकंठ । सजि गुड मिलत भ्रम ।। मुर मारुत मुरि चले ! मुरे मुरि बैस प्रमानं ।। तुछ कों परसिस फुट्टि । अनि किस्सर रँगानं ।। लीनी न अमिं नक स्थांम नन । मधुप मधुर धुनि धुनि करिय | जानी न वयन वन बसत ! अग्याता जोवन अरिथ ।। ६५, पत्त पुरातन झरिश } पत्त अंकुरिय उइ तुछ । ज्यों सैसव उत्तरिय । चढ़िय सैसब किसोर कुछ ।।