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विवेचित प्राचीन कथा-सूत्रों की भाँति लिङ्ग-परिवर्तन भी एक सुप्रसिद्ध कथासूत्र है । इन्द्र का अपनी प्रेयसी दानवीं विलिस्तेङ्गा के साथ असुरों के बीच में पुरुषों के सामने पुरुष और स्त्रियों के सामने स्त्री रूप में प्रेस पूर्वक विचरण इसका सबसे प्राचीन और अभी तक सुलभ उदाहरण हैं । विष्णु द्वारा स्त्री-रूय धारण करके समुद्र-नन्थन से निकले हुए अमृत-कमण्डलु को दानवों से लेकर देवतःच्यों को दे देने का वृत्तान्त भी मिलता है ( 'विष्णुपुराण' १-६-१०६ ) । परन्तु यह सब देवता सम्बन्धी है, जो अलौकिक शक्तिसम्पन्न होने के कारण ऐसे रूप धारण कर सकने में स्वाभाविक रूप से सक्षम समझे जाते हैं। परन्तु मानव-जगत में ये परिवर्तन अवटित, असाधारण और अपूर्वं व्यापार हैं । स्त्री का पुरुब हो जाना और पुरुष का स्त्री हो जाना पाँच प्रकारों से साहित्य में उपलब्ध होता है : (१) इच्छा-सरोवरों में स्नान द्वारा (अचानक और अवांछित रूप से)--- जैसे *बौद्धायन श्रौत सूत्र में शफाल देश के राजा भाङ्गाश्विन के पुत्र ऋतुपर्ण को यज्ञ में अपना भाग न देने के कारण रुष्ट इन्द्र ने सरोवर में स्नान करते हीं सुदेवला नामक स्त्री के रूप में परिवर्तित कर दिया था ! पुरुष और स्त्री रूपों में उन्होंने अनेक पुत्रों को जन्म दिया और इन्द्र द्वारा पूछने पर, अपने स्त्रीरूप से हुए पुत्रों के प्रति अधिक अनुराग बताया । महाभारत के शान्तिपर्व में युधिष्ठिर द्वारा पूछे जाने पर कि रति में स्त्री को अधिक आनन्द मिलती है या पुरुवा को, भीष्म ने ऋतुपर्ण की उल्लिखित कथा सुनाई थी । ‘कथाप्रकाश में दो नबती रानियाँ भिन्न योनि बाले बालकों का प्रसन्न करने पर उनका विवाह करने के लिये वचनबद्ध होती हैं। दोनों कन्याओं को जन्म देती हैं परन्तु उनमें से एक वास्तविकता को छिपा कर अपनी कन्या को पुत्र बतलाती है। बयस्क होने पर उनका विवाह होता है और भेद खुल जाता है। जिससे युद्ध की घटायें घिर आती हैं। वर बनी हुई कन्या घोड़े पर चढ़कर भाग खड़ी होती है और अचानक एके पीपल पर बैठे हुए पक्षियों के मुंह से अपनी कथा की चर्चा के साथ सुनती है कि यदि उक्त कन्या इस बक्ष के नीचे के कूप में स्नान कर ले और उसका जल पी ले तो वह पुरुई हो जाय । राजकन्या तदनुसार करती है और पुरुष होकर घर लौट जाती है । ‘कथारत्नाकर' में भी लगभग इसी ढंग की कथा है । (२) श्राप या वरदान द्वारा--जिसके अनेक उदाहरण विविध पुराणों, १. रिलिजन शेन्ड फिलासफ़ी. अधि.दि वेद, कीथ, भाग १,१०.१२५ ;.