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दान दिये गये तथा ऋ11 तसरे ॐ दीवान के पुत्र-रूप में है धृवी १६ प्रसिद्ध हुई है। चौरंग हुन्छ । राज मंडल अासपुर । दूर धर; रक्षन । सु वर जानै वृत्तासुर । घर असंष अर यि । एक यि सुचि बहु ।। लिहिं उर पुत्री र } पुत्र कर कही वधाइथ ।। करि संसार दुञ्ज दान दिय । अत्ताताई कुल कुअर ।। त्रिप अनंगपाल दीवान महि । पुत्र नाम अनुसर: सर ।।१६७२, इस अत्यन्त स्वरूपदान को देखकर राजा उसकी उठकर सम्मान करते थे, उसके कारण चौरंगी चौहान की कीर्ति बढ़ गई, बारह वर्ष तक उस्को मात उसका रूप छिपाये रही शीर राज्य-कार्य में चौहान के पुत्र-रूप में उनका उल्लेख किया गया, मनुष्य और देवता उसके रूप पर विमुग्ध थे ; इसी समय उसकी माता ने हरद्वार जाकर शिव की शरण लेने का विचार किया : श्नति तन रूप सप । भुप आदर कर उडि ।। चौरंगी चहुन । नाम कीरति कर पुहिं ।। द्वादस बरस स पुज्ज । मात गोचर करि ध्यौ । राज काज चान । पुत्र कहि कहि करि भष्य है। हरद्वार जाइ बुल्यौ सु हेर । सेव जननि संहर करिय' ।। नर क है र बन रवनिय पुरुष । रूपं देखि सुर उद्धरिथ ।।१९७३। इस कथा में महाभारत के शिखंडी सदृश श्रत्ताताई के विवाह की विडम्बनी सामने नहीं आई। किशोरावस्था में पदार्पण करते ही उसके स्त्रियोचित अङ्ग प्रगट होने लगे और उसकी माता अर्द्ध रात्रि में उसे लेकर शिव के अश्य हेतु चल ही : जब त्रिय अंग अगट्ट हुअ । तब यि अंग दुराई ॥ अद्ध रयन लै अनुसारय । सिव सेवन सत भइ ।।१६.७४ शिखंडी, माता-पिता पर आपत्ति देखकर अकेले ही वन को भाग गई थी। और रास में कन्या की माता का भी इससे अागे कोई उल्लेख नहीं मिलतः । भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए (छ० १६६५-३}, उस माला ले सारी शंका त्यागकर, अविचल रूप से निराहार व्रत की दीक्षा लेकर, शिव का जप अरिम्भ कर दिया : ईस जप उरे दिन धरति । तजि संका सुर बार ।। सो बाली लंबन किये । पानी पर्न अधार ।। १९८४,