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६ १३ ) भयावने हिंसक पशुओं वाले वन में छं० १९८१), शिव का ध्यान कि हुए उस कन्या को बिना अन्न-जल के ॐ मुसि बीत गये, सच उसके चित्त का निष्कपट भाव परख कर : घट मास आये दिन अब पान । दिब्य से वित निह कपट मान ।। १६६२, एक रात्रि के तीसरे इहर के स्ने में शिव उसके साक्षात् हुए : जगि जति निसा तज्जियं त्रिजाम । सपनंत इस दियौ प्रभान ! १६६३, और प्रन्न होकर उन्होंने उस वर साँगने की आज्ञा दी : | एक दिवस सिव झि कैं। पूछन छेड्न लोन ।। सुनि सन्ति बाल विसाल तौ । जो मं सोइ दीन ।। १९८६ ; कन्या ने कहा---'मेरे पिता योगिनिपुर के स्वामी अनंगपाल के मंत्री हैं, मुझे पुत्र-रूप में प्रसिद्ध करके वे झंझट में पड़ गये हैं; हे सर्वज्ञ ! सती के प्राणाधार, संगीत के अधिष्ठाता, काम को जलाने, यम का प्राश काटने और तीनों लोकों को आलोकित करने वाले त्रिशूलपाणि ! मेरे पिता की अपवाद भिटाइये, आप को छोड़कर अन्य कोई इस कार्य में समर्थ नहीं है : मुझ पित जुग्गिनपुर धनिये | अनंगपाल परधान ।। पुत्र पुत्र कहि अनुसरिय । ज्ञान वितर भानि ।। १९८७ विदित सकल सनि चपन | सती तंट विन कपटे । भगत उधव अरविंद । सीस चैदह दिषि झपटे ।। गीत राग रस सार। सुभर भासते तन सोभित ॥ काम देहन जम दहन । तीन लोक सौय लोकित ।। सर अनँ। निद्धि सामॅत गवन | अरि भंजन सज्जन वन !! भो तात दोष बर: भंजन | तु बिन नछ भॐ कवन ।। १६८ इसी कथा में आगे अढर दानी शिव का कथन–'मैंने पूर्वं पुत्र ही दिया था, उसे प्रमाणित करूगा, अस्तु जो कुछ मनोकामना है उसकी पूर्ति | पुत्र लिजिनि पुब्बै कहों । देउ स ताईि प्रमान ।। जु कछु इ छ वंॐ मनह । सो अन्यौ तुहि ध्यान ।। १६६.०, पढ़कर, शिखंडी के पिता राजा द्रुपद का स्मरण आ जाता है । उन्होंने भी पुत्र-प्राप्ति हेतु शंकर की तपस्या के फलस्वरूप पुत्री पाई थी, जिसको बाद में पुरुश हैं। जाने का वर था । अस्तु यह स्पष्ट है अत्ताताई की कथा ‘महाभारत' की शिखंडी-कथा की प्रणाली को सहारा लेकर लिखी गई है । शंकर उस कन्या से उसी स्वर्शकले में झागे कहते हैं कि तेरा नाम