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मानव के मिलन और वियोग के सुप्त भावों को जगाने वाले बरही के इल, क्रौञ्च के क्रीड़ा, चातक की रट, कोकिल की क्रूज, भ्रमर ॐ दुरुपासव-पान अादि भी प्रकृति-प्ट पर ऋतु-रिवर्तन के साथ सुलभ होते हो रहे होंगे। अपने मन के सुख और दु:ख झा स्पन्दन ऊ; प्रकृति में आरोधित करके मानव ने अनुभूति की कि उसके आनन्द में चाँद हँसता है, भेष्ठ उत्क दे हैं और विकसिं पुष्प हास्य से झूम उठते हैं तथा उस के निशा और अबसाद के क्षणों में, प्रकृति के ये विभिन्न अवयद उसके सौय ग्रि सहचर की भाँति तादात्म्य व से प्रतिक्रिया स्वरूप तदनुसार अचर कइले गले हैं। इस प्रकार प्रकृति के वे ही अङ्ग जहाँ हुन्त्री विरही के लिये ल हुए, सुखी संयोगी के लिये फूल बन गये । कवि ने अपने पुत्र-पत्रों की परिस्थिति के अनुसार साहित्य के पैतृक उत्तराधिकार में प्राप्त सम्वेदनशील प्रकृति के जड़ जगत को ही अपनी प्रतिभा के अनुसार नहीं हँसा-लाया बरन् उसके अाश्रित पशु-पक्षी भी अनुरूप व्यवहार कर उठे ।। प्रस्रवण गिरि की गुफा में लक्ष्मण के साथ निवास करते हुए वाल्मीकि के राम ने वर्ष-ऋतु का वर्णन करते हुए कहा---'यह बया अनेक गुणों से सम्पन्न है। इस समय सुत्री अपने शत्रु को इरास्त करके महान राज्य पर अभिषिक्त हो स्त्री के साथ रहकर सुख भोग रहे हैं। किन्तु मेरी स्त्री का अपहरण हो गया है, इसलिये मेरा शोक बढ़ा हुआ है। इधर, वर्या के दिनों कौ बिताना मेरे लिये अत्यन्त कठिन हो रहा हैं । ब्रह्माण्डपुराण' ( उत्तर१. धनोपगढ़ गगनं न तारा ने भास्करो दर्शनसभ्युपैति । नवैर्जलौचैधरणी दितृप्ता हमोविलिप्ता ने दिश: प्रकाश: ।।४७ महान्ति कुटानि महीधराणां धाराविधतान्यधिकं बिन्ति । महाप्रमाणे बिपुलैः प्रपातै मुझकलायैरिव लम्तमानैः ।। ४८ शैलपलमस्खलमानवेश; भैलोत्तमान विपुलाः अपाताः ।। गुहासु सेनादित बहिणसु हारा विकीर्यन्त इवन्ति ।। ४६ शीघ्र अवेगा वि पुन: प्रपाता: नितशङ्ग पता गिरीगाम् ।। मुक्ताकलापप्रतिमा: पतन्तौ . महाराहोत्सङ्गतलै र्धियन्ते ।। ५० सुरता मदविच्छिन्नाः स्वर्गीहार मौक्तिकाः । पतन्ति चातुला दिवा तोयधाराः समन्ततः ।। ५१, स २८, झिकिन्ध०, रामायण ; २. इमा: स्फीतगुणा वर्षा: : सुग्रीवः सुमश्नुते । विजितः सदार राज्ये महति च स्थितः ।। ५७