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स्लेएई ) में वे कहते हैं-चन्द्रमुखी सीता के विना मुझे चन्द्रभ भी सूर्य के सुभान ( तापमान ) प्रतीत होता है । हे चन्द्र, तुम अपनी किरणों से पहले। जानकर को स्प६ क; ( उनका एश करने से ने शीतल हो जायेंगी } फिर कुन शीतल किरणों से मुझे स्पर्श करना । | ऋष्ण की रानियाँ अहती हैंहै टिटिहरी ! इस रात्रि के समय जब कि गुप्त बोध भगवान् कृष्ण सोये हुए हैं तु क्यों नहीं सो जादी १ था तुझे नींद नहीं रही जो इस प्रकार विलाप कर रही है ? हे सखि हमारे लगान क्या तेरा हृदय केनयन के लीला-हास्यमय कटा-बाण से अत्यन्त बिंध गया है ? अरी चकवी ! तूने रात्रि के समय अपने नेत्र क्यों मूद लिये हैं ? क्या अपने पति के न देख पाने के कारण ही तू ऐसे करुण स्वर से पुकार रही है ? क्या तू भी हमारे समान ही अच्युत के दन्त्य भय को प्राप्त होकर के चरण कमज? पर चढ़ाई हुई युष्पमाला को अपने जूर में धारण करना चाहती है, इसी प्रकार उन्होंने समुद्र, चन्द्र, मलयमारुत, मेष, कोकिल, भूधर और नदी को भई सम्बोधन किया हैं । कालिदास के यक्ष ने अपना विरह प्रेषित करने के लिये भेघ का पल्ला पकड़ा तो घोयी की कुवलयवती ने पवन का । ऋतु-वन की साहित्य में अहं तु हृतदारेश्वरज्यच्च महतश्च्युतः । नदीकुलमिव क्लिन्नवसीदाक्षि लक्ष्मण || ५८ कश्त्र में विस्तीर्ण बश्च ऋशदुर्गमाः । रावणश्च हाछत्रुधारः प्रतिभाति में ।। ५६, सर्ग २८, किष्किन्धा०, रामायण , १, चन्द्रऽपि भानुवादि मम चन्द्राननीं विनर ।। ६ चन्द्र ल्वं उनकी स्पृष्ट्वा करैम स्पृश शीतलैः । ७सर्ग ५, किष्किन्धा; २. झुररि विलस त्वं बीतनिद्रा में होने स्वपित गति राज्यश्वरो गुफ बोध: ।। অমিল মুভি ক্ষঙ্ক্তিলিম্বিনা नलिननयनहाइलेक्षितेन । नेत्रे निलयति नभटन्धु स्नैं रोरबोधि करु वत झाँके । হ্রাস বা অস্বসিলাস্তুগালু किं ! जे स्पृहवसे बरे वाटु !!