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सजीवता से अनुप्राणित होकर संस्कृत के प्राचार्यों ने महाकाव्य के कई लक्षणों में उसके वर्णन मात्र की ही नहीं वरन नाम ले लेकर उसके विभिन्न अङ्गों की भी गणना की है। यही कारण है संस्कृत के महाकाव्यों में अनिवार्य रूप से ऋतु-बन की परिपाटी का । स्वयम्भुदेव के व-वर्णन का एक अंश इस प्रकार है---सीता और लक्ष्मण सहित जब दाशरथि वृक्ष के नीचे बैठे तो गगनाङ्गण में व-जाल उसी प्रकार उमड़ आया जैसे सुकवि का काव्य प्रसरित होता है और जैसे ज्ञानी की बुद्धि, पाप का पाप, धर्मों का धर्म, मृगाङ्क की ज्योत्स्ना, जगत-स्वामी की कीर्ति, धनहीन की चिन्ता, कुलीन का यश, निर्धन का क्लेश, सूर्य का शब्द, आकाश में सूर्य की राशि और वन में दावाग्नि प्रसरित होते हैं वैसे ही अम्बर में मेघमाला फैल गई। अपभ्रंश कवि की इस प्रकार की योजना से तुलसी ने अपने रामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में प्राकृतिक विधान करते हुए उपदेशात्मक अप्रकतों के नियोजन की प्रेरणा प्राई हो तो कोई आश्चर्थ नहीं। प्रकृति के अनुरंजनकारी रूप, प्रत्येक ऋतु तथा उसके कारण लता, गुल्म, पुष्प, घाव की उपज का सूक्ष्म अौर विस्तृत ज्ञान रखने वाले पुष्पदन्त का पावस-काल में प्रसाधित भूमि का वर्णन, कामनाओं को पूरा करने वाला और अमित सुख का स्वाभाविक दाता हैं। १.सीय स-लक्खण दासरहि, तरुवर मूल परियि जावे हि । पसर सुकइहि कवु जिह, मेह-जलु गणंगणे तावेहिं ।। पसरइ जैन बुद्धि बहु जाणहो । पसरइ जेम पाउ पाविवाहों ।। पसरइ जेम धम्मु धम्मिइहो । घसरइ जेम्जोएहसयवाहह” ।। पसरह जेम किति जगणाहहो । यसरइ जे म चिंता धणहीणहों ।। पसरह जेम कित्ति सुकुलोणहो । पसरइ जे म किलेसु णिहीणहु ।। पसर जेम सद्दु सुर-तुरहो” । पसरइ जेम रासि राहे सूरहों ।। पसरइ जेम दबग्रि वणंतरे । पसरिउ मेह-जालु तह अंबरे ॥२८,१, एउमचरिङ : २, मुग्ग - कुलत्थु - कंगु - जब - कलव-तिलेसी - वीहि - मासयर ।। फलभर-विय-कणिस-कर्ण-लं पड-णिवडिय-सुय-सहा सया ॥ वेवगय - भौय - भूमि • भव - भूरुह -सिरि• एरवइ-रमा सही । जायविवि - धरण - दुस - बेल्ली -गुम्म • पसाहा मही । पृ० २६.. ३०, श्रादिपुरा ;