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सुरम्य वन में जार पूर्वक विचरण करते हुए, मालती-युध् के वक्ष देश का चुम्बन करने वाले भ्रमर के अति मुक्त रति-विलास को देखकर धनपाल ने श्रेष्ठ वसन्त का स्मरण किया जाना अनिवार्य बतलाया है । | अपभ्रश काव्य में कहीं विरहिणी चातक को सम्बोधन करके कहती है‘तुम हताश होकर कितना रोते रहोगे, तुम्हारी जल से और मेरी प्रिय. तम से, दोनों के मिलन की आशा पूरी न होगी । कहीं परदेशी प्रियतम मैत्र-गर्जन सुनकर अपनी प्रेयसी कई याद से आन्दोलित होकर कह बैठता है*यदि वह प्रेम-पूर्ण थी तो मर चुकी है और यदि जीवित है तो प्रेम-शून्य है, दोनों प्रकार से मैंने धन्या को खो दिया, अरे दुष्ट बादल ! तुम क्यों गरजते हो'३ । कहाँ अति शारीरिक कुशता वश विरहिणी को वलय' गिरने के भय से अपनी भुजायै उठाकर चलते देख कवि अनुभान करता है कि वह तिस के विरह-सागर में थाह हूँ दे रही है।४ कहीं प्रियतम के आगमन का शकुन लेते हुए कौए को उड़ाने में क्षीण काया प्रोषित पतिका की आधी चूड़ियाँ पृथ्वी पर गिरकर टूट जाती हैं और शेष उसके उसी समय ग्रागतपतिका हो जाने के कारण हर्षोत्फुल्ल शरीर के स्थूल हो जाने पर तड़ककर टूट जाती हैं। कहीं हम विरही को अनुभव करते हुए पाते हैं कि सन्ध्या-काल भी वियोगियों को सुखद नहीं, क्योंकि उस समय मृगाङ्क वैसा ही तपता है जैसा सुर्य दिन में । और कहीं एक अाँख में साबुन, दसरी में भाद, नये युत्तों १. जहिं मालइ कुसुमाग्नौयर, चुंवंतु भमइ वणि महुअर । अहमुत वि जहिं रह करई, सो बालबसंतु क न सरडू ।। १०, सन्धि , भविसवत्तक । ३, सप्पीहा पिऊ पि अर्चि किसिल हा हिं हयास । तुह अलि अहु तु थन्ह चिहुँ नि ३ एरिअ' असि ।। ३८३०१, सशब्दानुशासनम् । ३. अई ससणे हीं तो मुइअ अह जीवई निन्नेह ।। | बिहि वि पवारे हि गहअ धराः किं गजइ खल भेह ।। ३६७०४, वही ; ४. वलयावलि निवडण्ण भएण धण उद्भभुझे जाई ।। वल्लह-विरह-महादहहो थाह' गवे सई नाई ।। ४४४-२, वही ; ५. वायसु उड्डावन्ति पिउ दिइउ सहस त्ति ।। अद्धा वलया महिहि गय श्रद्धा फुड तड़ ति ।। ३५२-१, वहीं ; ६, भइँ जाणि पि. विरहिअहं के वि' धर होइ विअलि ।। णवर मिअङ्क वि तिह तवइ जिह दियर ख-गालि ।। ३७७,१,बही;