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( १८६ ) के बिछौने में बसन्त, कपोलों पर शरद्, अङ्गों में श्रीभ, कटे हुए तिल-वन में अगहन रूप में हेमन्त तथा मुलं-कत पर शिशिर वाली विरह-जड़िता मुग्धा दृष्टिगोचर होती हैं । | अब्दुलरहमान छूत ‘सन्देशासक की प्रोषितपतिका एक पथिक द्वारा अपने प्रियतम की विरह-सन्देश भेजते हुए घट-ऋतुश्चों में अपनी दशा का 'मार्मिक विवेचन करती हैं । उदाहरणस्वरूप हेमन्त में उसकी स्थिति देखिये सुगन्धि के लिये अरु जलाया जाने लगा, शरीर पर केशर मली जाने लगी, दृढ़ अलिङ्गन सुखकर हुआ, दिन क्रमश: छोटे होने लगे परन्तु मेरो ध्यान प्रियतम की ओर लगा रहा । उस समय मैंने कहा, मैं दीर्घ श्वासों से लम्बी रातें बिता रही हूँ। तुम्हारी स्मृति मुझे सोने नहीं देती । तुम्हारा स्पर्श न पाने से ठंढक के कारण मेरे अङ्ग ठिठुर गये हैं। यदि इस शीत में भी तुम न आए तो हे मूर्ख ! हे दुष्ट ! हे पाप ! क्या तुम मेरी मृत्यु का समाचार पाकर ही आग ३ ।। | ऋतु-वन विषयक काव्य-परम्परा का पालन करते हुए चंद ने भी सो में ऋतुओं के अनुपम चित्र अवान्तर रूप से कहीं पुरुष और कहीं स्त्री-विरह का माध्यम बनाकर खींचे हैं, जो उसकी मौलिक प्रतिभा के द्योतक १. एक्कहिँ अक्सिहिं सावणु अन्न हिं. भद्दवउ । माह महियल-सत्थर गण्ड-थले सङ । अङ्गिहि गिम्ह सुहच्छी-तिल-वणि भरगसिरु । तहे मुद्धहे मुह-पङ्कइ अावासिङ सिसिरु ।। ३५७-२, वहीं ; २, धूइज्जई तह अगरु घुसि तणि लाइयई, गाढउ निवडालिगणु अंगि सुहाइयइ । अन्नह दिवसह सन्निहि अंगुलमल हुय, महु इकाई पुरि पहिये शिवेहि बम्जुय ।। १८६,""" दीह'उससिहि दीहरयणि भह गइन्न रिक्खर, आइ ए णिये दि तुज्झ सुयरतिय तक्खर । अंगिहिं तु अलहत चिठ्ठ करयलफरिस, संसोइड त हिमिण हाम हेसह सरिसु । हेमंत कंत विलवंतियह, जई पलुट्टि नासासिहसि ।। खें तइय मुख खल पाई मइ, मुइय विज्ञ किं अविहसि ।। १६१, सन्देसरासकै ;