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प्रस्तुत किये ! डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने रास्त्रों के महत्वपूर्ण प्रस्तावों, उसमें निहित धार्मिक भावना और उसकी भाषा का परिचय देते हुए हिन्दी-साहित्य-सेवियों को उसकी और अधिक ध्यान देने के लिये प्रोत्साहित किया। श्री मूलराज जैन ने सौ की विविध वाचनाओं पर काश डाला ! डॉ. भाता प्रसाद बम ने स-प्रबन्ध परम्परा का अवलोकन कर पृथ्वीराजु-सि को अधिक से अधिक विक्रम की चौदहवीं शताब्दी की कृति मानः । प्राचार्य हजारांप्रसाद द्विवेदी ने वरित और कथा काव्य के गुणों से परिपूर्ण, उपलब्ध रासो में चंद की मूल कृति गुम्फित होने का प्रगाढ़ विश्वास करके, प्राचीन कथा-सूत्रों और काव्य-रूढ़ियों के आधार पर भी इस काव्य की परीक्षा करने का परामर्श दिया तथा अपने निश्चित किये हुए सिद्धान्तों के आधार पर श्री नामवर सिंह के सहयोग सहित एक संक्षिप्त रासो सम्पादित करके प्रकाशित करवा दिया । डॉ० माता प्रसाद गुप्त ६ ने आचार्य द्विवेदी जी के कार्य में शिथिलता का निर्देश करते हुए अपने निर्दिष्ट मत की यावृत्ति की । पृथ्वीराज रासो' पर किये गये कार्य का संक्षिप्त विवरण यह पर. यह दिखाने के लिये दिया गया है कि गति भले ही कुछ धीमी रही हो परन्तु आज भी अधिकारी विद्वान उस पर विचार कर रहे हैं । अनैतिहासिक समझकर हिन्दी-साहित्यकार उसकी अोर से तटस्थ नहीं हुए, उनके सदुप्रयुन चले ही जा रहे हैं । इस समय भी जहाँ १० मोतीलाल मेनारिया जैसे विचारक रास की चार वाचनाओं के लिये कहते देखे जाते हैं.--'वे वास्तव में रास के रूपतर नहीं, प्रत्युत वृहत् अथवा सम्पूर्ण रासो ( जो सं० १७०० के आस-पास बनाया गया है ) के ही कटे-छैटे रूप हैं जिनको अपनी-अपनी रुचि एवं अव१. पृथ्वीराज रासो, काशी विद्यापीठ रजत जयन्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, वसंत पंचमी सं० २००३ वि० ( सन् १६४६ ई० }; २, पृथ्वीराज रासो की विविध वाचनायें, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, अक्टूबर सन् १६४६ ई० ; ३. रासो'-प्रबंध-परंपरा की रूप रेखा, हिन्दी-अनुशीलन, बर्ष ४, अङ्क | ४, पौष-फाल्गुन सं० २००३ चि ( सन् १९५१ ई०); ४. हिन्दी साहित्य को आदिकाल, सन् १९५२ ३०; और हिन्दी साहित्य, सन् १६५२ ३० ; ५. संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन् १९५२ ई० ; ६. मूल्यांकन ( संक्षिप्त पृथ्वीराज रासौ ), आलोचना, वर्ष २, अंक ४, जुलाई सन् १६५३ ई० ;