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श्यकता के अनुसार समय-समय पर लोगों ने तैयार कर लिया है। १ ; अर इ. मातप्रसाद गुप्त, प्राप्त वाचनान्य दो कृतित्व केल-गणना से करके रास का मूल रूप विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का बतलाते हैं, वहाँ मुनिराज जिनविजय, महामहोपाध्याय पं० मथुरा प्रसाद दीक्षित, ड० दशरथ शम, प्रो० ललिताप्रसाद सुकु.ल, अनार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और मेरे जैसे कुछ व्यक्ति अनुमान करते हैं कि उपलब्ध रास में पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबारी (और पृथ्वीराज विजय के अनुसार पृथ्वीभट या पृथ्वीराज के भाट अर्थात् ) कवि चंद बरदायी की मूल कृति विकृत रूप में निःसन्देह उपस्थित हैं, जिसका पृथक किया जाना दुसाध्य भले ही हो असाध्य नहीं। इस युग में विना ‘पृथ्वीरज-रास' का अवलोकन किये *सोसार’ मात्र पढ़कर, कविराज श्यामल. दास और विशेषकर भ७ म० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के रासो विरोधी तकें जानकर तदनुसार राग अलापन अपेक्षाकृत आसान है। अाज रास की समस्या उसे अप्रामाणिक और अनैतिहासिक सिद्ध करने की इतनी नहीं है। जितनी उसके अन्दर बैठ कर उसके प्रक्षेप-जाल का आवरण दूर करने की हैं। | रस की ऐतिहासिकता के विरोधी जहाँ एक ओर भारतवर्ष में इतिहास लिखने की परम्परा न होने के कारण चन्द द्वारा इतिहास-काव्य लिखे जाने की बात नहीं समझ सकते, वहीं दूसरी और बेसिर-पैर की अनेक बातें लिखने वाले पृथ्वीराजविजय,३ को क्यों माणिक समझते हैं ? तथा १. राजस्थान का पिंगल साहित्य, सन् १९५२ ३०, पृ० ५३ ; R. "The Muhammadans had a regular system of writ ing History, the Hindus bad no such system, if there was anything of the kind, it was simply the genealogies, and very little, if any, historical accounts written in the books of the bards, are exaggerated poems of the times”. Kavirja Shyamal Das, J.A.S.B., Vol. LY, Pt. I, p. 16 , 1886 ; तथा बंद वरदाई और जयानक कवि', म० अ० पुं० मथुर प्रसाद दीक्षित, सरस्वती, जून १९३५ ई०, पृ० ५५६-६१ ; । ३. Like all Indian Kavyas ( including the drshya kavyas ) dealing with historical themes, the Prthviraj Vijaya also contains an amount of unhis