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यहाँ अग्नि, सूर्य का पर्याय है ! अस्तु अग्नि के सूर्य भी कह देने में कोई अड़चन नहीं हो सकती । अग्नि-वंशी चौहानों को भी सूर्यवंशी लिखा गया एरन्तु इसके द्वारा एक विशेष अर्थ की साधना भी इष्ट थी ! इसे स्पष्ट करने के लिए हमें पृथ्वी राजविजय की ओर चलना होगा । (रास' में चहुबान या चाहमान की उत्पत्ति दैत्यों और राक्षसों के विनाश के लिए झरिन से होती है तो ग्रुथ्वीराजविजय' में भी लगभग उसी प्रकार के हेतु का संकेत करते हुए सूर्य से इस प्रकार होती है.---'पुष्कर के विषय में जब पुष्कराभव ब्रह्मा जी इतना कह कर चुप हुए, तब सृष्टि के श्रादि से ही जिनको पिशाच जनों की भर्दन इष्ट है, उन श्री जनार्दन की दृष्टि सूर्यनारायण पर पड़ीव्याहृत्य वाक्य निति पुष्कर कारणेन तरुणीमभूयत च पुष्कर कारणेन । असर्ग सम्मत चिजनार्दनस्य | भास्वत्यपत्यत दृशः च जनार्दनस्य १) सर्ग १ ; तदनन्तर सूर्य-मंडल से एक तेज-पंज उत्पन्न होकर पृथ्वी पर उतरने लगा ।। उसे देख अकिाश के प्राणी सोचने लगे कि क्या इन्द्र के लिये प्रकल्पित अहुति सूर्य-बिम्ब को प्राप्त कर, वायु से अधिक प्रदीप्त हो, फिर पृथ्वी को लौट रही है ? जिस सुषुम्ण नामक किरण की याचन प्रति अमावस्या को चन्द्र किया करता था, वह सब क्यः सूर्य ने उसे दे दी है ? इस कारण क्या चन्द्र उस किरण को शोषधियों को दिखायेगा ? क्या उत्तरदिपति (काम) का पु भडकूनर रम्भा के अनुरोग से स्वर्ग में कर सूर्य से सत्कार याकर लौट रहा है ? क्या भौम, म्ले के उपद्रवों का निवारण करने के लिये अपनी माता, भूमि के अङ्क में आ रहा है ? कानीनता से कदर्थित, परन्तु युद्ध-क्रिया-द्वारा अर्क-भण्डल में प्रवेश कर, अयोनिजन्म से द्युतिमान हो क्य; कर्ण पुनरपि थ्वी पर अा रहा हैं ? इसके अनन्तर उस अर्क-मण्डल में से बहुत सुन्दर काले बालों वाली, किरीट, केयूर, कुण्डल, माला, मणिमय-मुक्ताहार आदि अभिरण धारण किये, चन्दन लगाये, खङ्ग और कवच से सुशोभित, वयुष्मान् लोहमय पादवाला एक त्रिभुवन-पुण्य-शि पुरूष निकला । वह धर्म ब्यबहार में मन से भी अधिक वेगवाला, कुपथ पर चलने में शनि से भी अधिक अलसी, सुग्रीव से भी अतिशय मित्रप्रिय और यम से सौं अधिक यथोचित दण्डधर था । वह दान में कर से भी अधिक उत्साहचान और साधुओं की नीवेद, माओं को दूर करने में अश्विनीकुमारों से भी अधिक सबिधान था । वह अश्व