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६ २०५ ) विद्या में सूर्य के प्रसिद्ध पुत्र देवेन्द्र से भी अधिक प्रवीण था । कर मैं चाएँ ग्रहण करने, मन में हर को धारण करने, बले में मान धारण करने तथा मंत्रियों द्वारा नय १२जनीति} धारण करने के कारण वह इन गुणों के अनिल बरों से निर्मित 'चा-है--संज्ञा को प्राप्त हुई । करेण चापस्य हरेर्मनी बलेन मनस्य नयेन में त्रिभिः । धृतस्य नामाग्रिमवर्णनिर्मितां । से वाहमानयमिति प्रथों ययौ ||४५, सर्ग २ ;” । यह बर्णन पढ़कर जहाँ एक ओर यह ध्यान अाता है कि अग्नि से प्रसूत होने वाले चाश्नान की रूप-वर्णन करते हुए रासो में इतने अप्रस्तुत का विधान नहीं पाया जाता वहाँ दूसरी और एक स्वाभाविक प्रश्न भी उठता है कि जयानक ने चौहानों के मूल पुरुष चाहमान’ को सीधे-सीधे सूर्यवंशी क्यों नहीं लिख दिया, क्योंकि सूर्यवंश प्राचीन और विश्रुत था, उसे उक्त पुरुष को ग से अवतरण करने की क्या आवश्यकता पड़ गई ? उत्तर स्पष्ट है । कर्नल टॉड द्वारा राजस्थान में अन्य क्षत्रियों की अपेक्षा चौहानों के पौरुष र पराक्रम को भर पेट कीर्ति अतिरंजित नहीं, तो काश्रित अवश्य है। बाहर से आई हुई इस वीर जाति को यज्ञ आदि के द्वारा शुद्ध करके भारतीय बनाने का प्रयत्न अश्य किया गया था । चंद ने चौहान को अग्निबंशी बताकर वस्तुत: सत्य क; अथि प्रकाश किया है जब कि ( संस्कृत } ‘पृथ्वीराज विजय के कर्ता जथानक ने ही केवल नहीं वरन् उसके पूर्ववर्ती (संस्कृत) शिलालेखकार कवियों तथा अरवर्ती ( संस्कृत ) हम्मीरमहाकाव्य के कत नयचन्द्रसूरि और (संस्कृत) सुर्जनचरित्र-महाकाव्य' के रचयिता चन्द्रशेखर ने उन्हें सूर्यवंशी बतलाकर एक ओर जहाँ अग्नि और सूर्य में तेजरूप के कारण तत्वत: समानता का भाव होने से ( सूर्य द्वार चाहमान की उत्पक्षि अांशिक परिवर्तन सहित प्रस्तुत करके ) सत्य से विरत न होने की दावा किया वहाँ दूसरी ओर उनका भारत के सुप्रसिद्ध इक्ष्वाकु-कुल वाले रघुवंशियों से गौरवपूर्ण और महिमामय सम्बन्ध भी अनायास ही स्थापित कर दिया । वास्तव में चौहानों को सूर्यवंशी बनाकर संस्कृत-कदियों की एक घन्थ दो का सिद्ध कर लेने की कल्पना आम सराहनीय है। चरन्तु इसके बाव १, पृथ्वीराजविजय, सर्ग १, तथा श्लोक १-४४, सर्ग २ ; २, सर्ग ७, श्लोक ५०-६१ ;