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(२११ ) पवन रूप परचंड । घालि असु असि वर झारे । मार मार सुर बजि । पत्त तक अरि लिर पारे । फटकि स६ फीफरा । हङडु कंकर उपारे । कटि भसंड पर मुंड। भिंड कंटक उप्पारे । बजयौ विषम मेवार पति } जे उडाई सुरतान दल । समरथ्य समर सम्मर मिलिय। अनी मुम्बु चिौ सवल ।। ६६ उन्तीसवें समय में पृथ्वीराज द्वारा सुलतान से दंडारूप पाया हुआ सुवर्ण रावल जी के पास भेजने का समाचार मिलता हैं । रथिम्भौर के राजा भाने की अभयदान-याचना सुनकर पथ्वीराज, समरसिंहू को भी सहायतार्थ बुलाते हैं और दोनों की सेनाथै यार्त का उद्धार करती है। द्वारिका-यात्रा में चंद चितौड़ जाकर पृथा और समरसिंह द्वारा पुरस्कृत होता है।४ द्वितीय हाँसीपुर युद्ध में अहुपति रावल चित्रांग को पथ्वीराज के मंत्री के मास बुला भेजते हैं जहाँ युद्ध में विजयी होकर वे दिल्ली जाते हैं तथा कुछ दिन वहाँ रहकर भेंटस्वरूप मुसजित बीस घोड़े और पाँच हाथी पाकर घर लौट जाते हैं। अपने राजसूर्य-यज्ञ के निमंत्रण का रावल जी द्वारा विरोध सुनकर ६ जयचन्द्र के चित्तौड़ पर आक्रमण में विजय-श्री समर सिंह को ही प्राप्त होती है । एक रात्रि को स्वप्न में दिल्ली की मन-मलीन राज्यलक्ष्मी को देख कर रावत जी अपने पुत्र रतन को राज्यमार दे देते हैंजिससे उनका (ज्येष्ठ) पुत्र कुंभकर्ण ( अप्रसन्न होकर ) बीदर के बादशाह के पास चला जाता है। दिल्ली पहुँचकर वहाँ की अव्यवस्था और पृथ्वीराज को संयोगिता के रस-रंग में निमग्न देखकर उन्हें १. ॐ० ५६-५७ ; २. छं० २२, स० ३६ ; ३. छं० २३-८५, वही ; ४. ॐ० १८२५, से० ४२ ; ५. ॐ० ६४-२०३, स० ५२ ; ६. छं० २४-५१, स० ५५ ; ७. छं० १.१०६, सं० २६; ८. छं० १-२, स० ६६ ; ६. ॐ० ५, वही ; १०, छं० ६, वही ;