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{ २१२ ) बड़ा क्लेश होता है, इसी बीच में शोरी के आक्रमण का समाचार मिलता है और पृथ्वीराज उसले मोर्चा लेने के लिये सन्नद्ध होते हैं, चौहान द्वारा घर चले जाने के प्रस्ताव और प्रार्थना पर रुष्ट होते हुए वे सुलतान से भिड़ने के हठ करके ठहर जाते हैं। तथ युद्ध में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित कर, वीरगति प्राप्त करते हैं : दिब्धि वान बुरसान ! गुर बर जंमथ्थ उपदिय । समर सिंव 5ष चहर । हिंदु मेछन मिति जुधि ।। शिद्धिनि पल संग्रहन ! जुध ले रन आइये ।। श्रेन पर निफरत । पत्र जुगनि लै धाइये ।। पल चरित्र मेछ हिंदू सहर | अच्छरि मल अति अरग किय ।। महदेव सीस बंधे गरी ! काल झरपि लीनौ नुजिये ।। १३८७ युद्ध का विषम परिणाम सुनकर संयोगिता के प्राण छूट जाते हैं और रावत जी की सहगामिनी पथा सती हो जाती हैं : निरधि निधन संजभि । प्रिथी सञ्जी सु समि सथ || हक्कि हंस तत्तारि । वीर अररिय प्रेम पथ ।। साजि सकल श्रृंगार । हर मंडिय भुगतासनि !! रजि भूषन हय रोहि । जलिज अच्छित उछारति}} । है या सह जंपत जगत् । हरि हर सुर उच्चार वर ।। सह गमन सिंघ रावर चले । तजि महि' फूल श्रीफल सुकर }} १६९० समर सिंह सम्बन्धी रास की इस कथा का उल्लेख संक्षेप में ‘राजप्रशस्ति काब्य में भी मिलता है । रासो की विवेचना करते हुए समर सिंह के प्रसंग में अमृतलाल शील ने लिखा है -“समरसिंह और रत्न सिंह के जो कई दान पत्र मिले हैं। उनसे प्रमाणित होता है कि समर सिंह पृथ्वीराज से एक शताब्दी पीछे चित्तौर के राजसिंहासन पर बैठा था और उसका पुत्र रत्नसिंह ईसा की चौदहवीं सदी में अलाउद्दीन खिलजी के समय विद्यमान था। इससे प्रभाणित होता है कि समरसिंह पृथ्वीराज का बहनोई अथव; a १. छं० ७-७०, बही ; १. छं० १८०-३३८, वहीं ; ३. ॐ ३३६-६५, वही ; ४. सर्ग ३, इलोको २४-२७ ;