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मनधियों को उसी प्रकार अपनी ओर आकृष्ट करता है जिस प्रकार सिर घर जर्जरित लोभ-पुटी डाले थ्रौर गले में बोल नकों की माला से भी रहित मुग्धा { के सौन्दर्य ) ने गोष्ठ-स्थित ( रसिक ) में उठा-बैठी करवा दी थी : सिरि जर-खण्डी लोशडी गलि मणियडी न वीस ।। त चि गोडा कराविश्रा मुद्धए उछ बईस ।। ४२४-४, हेमशब्दानुशासनम् । थौर जिस प्रकार ( पति के हृदय में ) नव वधू के दर्शनों की लालसा लगाये अनेक सनोरथ हुआ करते हैं : नव-वहु-दस-लालसउ वहद्द भणोरई सोइ ! ४०१-१, वही, लगभः उसी प्रकार साहित्यकार भी रासो के रहस्य के प्रति उत्सुक और जिज्ञासु हैं । रेवा-तट श्री जान बीम्स ने वृहत् रासो के अादि पव' के प्रथम १७३ छन्द सम्पादित करके एशियाटिक सोसाइटी अव बंगाल की बिब्लिओथे इंडिका, न्यू सीरीज़, संख्या ६६६, भाग १, फैसक्यूलस १ में सन् १८७३ ई० में प्रकाशित करवाये थे तदुपरान्त रेरेन्ड डॉ० ए० एफ० रुडॉल्फ ह्योनले ते “पृथ्वीराजे-रासो' के वृहत् रूपान्तर की विविध हस्तलिखित प्रतियों की सहायता से उसके देवगिरि रुम्यो' से लेकर कांगुरा जुद्ध स्तर तक अर्थात् दस प्रस्तावों का वैज्ञानिक संस्करण प्रस्तुत करके उक्त सोसाइटी की बिब्लिअर्थका इंडिका, न्यू सीरीज़, संख्या ३०४, मा २, फेसीक्यूलस १, सन् १८७४ ई० में प्रकाशित कराया, और वहीं को बिब्जियोथेका, न्यू सीरीज़, संख्या ४५२, भाग ३, भैसीक्यूलस १, सन् १८८१ ई० में ‘वातट सस्य २७' की कथा और गद्यानुवाद तथा अनंगपाल सम्यो २८' की कथा और उसके प्रथम तीन छन्दों का गद्यानुवाद अंग्रेजी भाषा में वांछित, भाषा-वैज्ञानिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक र साहित्यिक टिप्पणियों सहित प्रकाशित करवाया था। डॉ० ह्योनले के कार्य को प्रशंसा की अपेक्षा नहीं, वह एक सिद्ध शोध-कती प्राच्यविद्या-मनीषी की कृति है । पृथ्वीराज रासो' पर अनुसन्धान कार्य करने और रेवतिट श्रादि का पुनः सम्पादन करने के मूल प्रेरक डॉ० स्वार्नले के निर्दिष्ट ग्रन्५ ।। यद्यपि प्रो• बूलर, कविराज श्यामलदान, डॉ० ओझा प्रभृति विदेशी