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| रू० २–प्रथिराज<पृथ्वीराज (तृतीय) चौहान जो दिल्ली का अन्तिम हिंदू सम्राट था। यह अजमेर के राजा सोमेश्वर का पुत्र था | राजपूताना का इतिहास गौ० ही० अ०, भाग १, जिल्द ४, पृ० ७२ ]। रेवा--आधुनिक नर्मदा नदी का नाम थी। नर्मदा मध्यप्रदेश की एक नदी है जो अमर कंटक पर्वत से निकलकर खंभात की खाड़ी में गिरती है। रेवा, भारत के उस देशखंड को भी कहते हैं जहाँ नर्मदा नदी बहती है। रीवाँ राज्य बघेलखंड में है। विंध्य श्रेणी पर विस्तृत रेवा अर्थात् नर्मदा की धार की तुलना कालिदास ने हाथी के शरीर पर खौर रेखाओं से की है---- रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णी भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य ।। १६॥ मेघदूत । १२-१३ वीं शताब्दी के जैन प्राकृत ग्रंथों में रेवा अर्थात् नर्मदा नदी के तट पर स्थित कई जैन तीर्थों का उल्लेख मिलता है परन्तु १५०० सील बहने वाली इस नदी पर अन्य प्रमाणों के अभाव में अभी तक उनका स्थान निर्दिष्ट नहीं किया जा सका है एक उल्लेख दृष्टव्य होगा--- दहमुहरायस्स सुआ कोडी पंचद्धमुणिवरे सहिया ।। रेवा उहयम्मि तीरे शिवाण गया •णमा तेसिं ।।१०।। रेवा गइये तीरै पच्छिमभायम सिद्धवर कुटे । दो चक्की दह कप्पे आहुट्यकोडिणिबुदे बन्दे {}११}} रेवातडम्म तीरे संभवनाथस्स केवलुप्पपत्ती । आय कोडी निव्वाण गया एमो तेसि ।।१२। क्रियाकलाप । रेवा के उद्गम अमरकंटक के समीप रावण की लंका की प्रस्थापना के लिये भी उपर्युक्त छंद १० की मुखपंक्ति विचारणीय होगी । तट=किनारा । अपुब्ब<अपूर्व, यह ‘गुज’ और ‘राज झुंड दोनों का विशेषण है। नोट-“प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था में ही हिन्दी साहित्य का विभत्र माना जा सकता है । उस समय जैसे गाथा कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा' था दूहा' कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्यभाषा को पद्य समझा जाता था ।” [हिन्दी साहित्य का इतिहास, पं० रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ ३ ] । दोहा या दूहा मात्रिक छंद है। इसके विषम चरणों में १३ और सम चरण में ११ मात्रायें होती हैं। पहिले व तीसरे चरण के आदि में जगण न होना चाहिये और अंत में लधु होना चाहिये ।