पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(११)

________________

तीन गुणों के बाद विराम वाले गाथा छंद ‘पथ्या कहलाते हैं तथं बिना ऐसे विराम वाले ‘विपुला' । विपुली के तीन उपभेद हैं--मुखविपुला, जघनधिपुला और सर्व विपुला । Sanidesa Rasakaed. Muni Jina Vijay. A Critical Study. p. 69-70. प्राकृत पैङ्गल' नामक ग्रंथ में गाहा (अथवा गाथा ) छंद का लक्षणे इस प्रकार लिखा गया है पढमं बारह मी बीए आइरहेहिं संजुत्ता । जह पढर्म तह तीचं दह पंव बिहूसिआ गाहा ।।५४ ।। [अर्थात्--( इस चार चरण वाले ) गाथा छंद के प्रथम चरण में बारह मात्रायें और दूसरे चरण में अठारह मात्रायें तथा तीसरे में बारह मात्रायें और चौथे में पंद्रह मात्रायें होती हैं । रूप दीप पिंगल' में इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है-- आदौ द्वादश करियँ अठारह बारह फिर विथ धरिये, संग्या शेस सिधाई गाथा छंद कहो इस नाम ।” कवित्त । ब्रह्म रिष्ष तप करत, देषि केप्यौ मधवानं । छलन काज पहु पठय, रंभरुचिरा करि मोनं ।। श्राप दियौ तापसह, अवनि करनी सुअवत्तिरि । क्रम बंधि इक जती, लषितहू औ सुपनंतर ।। तिहि ठाम अाई उहि हस्तिनी, बोर लियो पोर सुनमि ।। उर शुक्र अंस धरि चंद कहि, पालकाव्य मुनिकर जनमि ।। छं० ६/ रू. ६ भावार्थ-रू० --एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देख कर इन्द्र कैंप उठे ( डर गये )[ उन्हें अपने इन्द्रासन के लिये चिंता हुई कि कहीं यह उस के लिये न तप करता हो । और उन्होंने रंग का पूर्ण रूप से श्रृंगार करके मुनि को छतने भेजा । तपस्वी ने उस (रंभा) को श्राप दिया जिसके फलस्वरूप बह हथिनी होकर पृथ्वी पर अवतरित हुई । कर्म बंधन के अनुसार ( भाग्य की गति देखिये ) एक यती को सोते समय वीर्यपात हुआ और उस हथिनी ने उस समय वहाँ पहुँचकर अपनी सँइ झुकाकर उस ( वीर्य) को उठा लिया (१) नाबाह्या (२) ना०—ाम ।