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( १७ ) चरण स्पर्श करने के लिये झुके । राजा भान दल अल सहित आकर मिली, दलगढ़ का राजा खइ तथा नंदिपुर का राव मिला और रेवा नरेन्द्र भी स्वयं आकर मिला । वन में अनेक मृगों, सिंहों और हाथियों के यूथ थे जिनका महाराज ने शिकार खेला । ( तव ) लाहौर स्थान में जो ( शासक चंदपुडीर) था और जो सुलतान को कष्ट देने वाला था उसका वर ( श्रेष्ठ ) पत्र मिली ।। | वहीं उन्हें लाहौर से एक पत्र मिला जिसमें सुलतान की बढ़ी हुई शक्ति का वर्णन था ।” ह्योर्नले । ( इन्होंने “तपवर' का अर्थ मिलाकर किया है)। शब्दार्थ-रू० १३---तापकष्ट । पहुपंग=यह कन्नौज के राजा जयवंद की एक उपाधि थी। [पहु<प्रभु (=स्वामी)+पंग या पंगल(लंगड़ा)। और एक नाम दुल-पंगुल भी था । रासो में पहुपंग और दल-पंगुल (दुल-पंगुल) दोनों नाम मिलते हैं। जयचन्द का नाम दल-पंगुल क्यों पड़ा इसे पृथ्वीराज रासो सन्थौ ६१ छंद, १०२८ में चंद वरदाई ने इस प्रकार लिखा है जैसे नर पंगुरौ । विन सु झगुरी न हल्लहिं ।। अधिारित फंगरी। हरु वह वत न बल्लहि ।।। तेथे र जयचंद असंघ दल पार न पायौ ॥ चालुक इक सर सरित । दलन हबल्ल अधायौं ।।। दिसि उभय गंग जमुना सु नदि । अद्ध कोस दल तब बह्यौ । कविचंद कहै जै चंद नृप । तातें दल एंगुर कह्यौ ।” जयचंद का पडुपंग' नाम केवल इसी २७ वें सम्यौ में ही नहीं आया है । 'रासो सम्यौ २६ छंद ४-८तव पहुपंग नरिंद। कुसल जानी न गरिठ्ठो ।”; छंद ६---तब पहुपंग नरिंद प्रति । दूत सु उत्तर जपु । इसी प्रकार रासो के अनेक स्थलों पर पहुपैग' नाम मिलता है जो जयचंद के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। टॉड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि दुल-पंगुल नाम की उत्पत्ति इस प्रकार हुई.--..-कन्नौज राज्य के किले की चहारदीवारी तीस मील से भी अधिक थी और राज्य की असंख्य सेना के कारण राजा का विशेषण दुल-पंगुल हो गयी । दुल-पंगुल से तात्पर्य है कि राजा लँगड़ा है या सेना की अधिकता के कारण वह नहीं चल सकता । चंद के अनुसार अगली सेना युद्ध क्षेत्र में पहुँच जाती थी तव भी पिछली सेना को आगे बढ़ने का स्थान न मिलता था और वह खड़ी ही रह जाती थ' [ Annals and Antiquities of Rajasthan, Tod, Vol II, p, 7 ] । १०रासो के अतिरिक्त “रंभामंजरी की भूमिका पृष्ठ ४ तथा उसके प्रथम अंक, पृष्ठ ६ में भी हमें राजा