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दूही घट मुर कोस मुकाम करि, चढ़ि चढ्यौ चहुन । चंद वीर पुंडीर कौ, ' कग्गद करि परिबांन ।। ॐ १८।रू० १८ गोरी वै दल समुहौ, गौ पंजाब प्रमांन ।। पुब्ब रु पच्छिम दुहुँ दिसा, मिलि चुहान सुरतांन ।।छं० १६। रू० १६१ दूत राये कनवज दिसि, ते आये तिन थांन ।। कथा मंडि१ चहुनि की, कहि कसधन अमन ।।छं० २०१०२० रेवा तट आयौ सुन्यौ बर गोरी चहुन । बर अवाज सब मिट्टि के, सजे सेन सुरतांन ।।"छं०२१ रू०२१॥ दूत बचन--संभले नृपति, बर आषेटक भिल्ल । रेवा तट पाधर धरा, जूह ( जहाँ) मृगन बर मिल्ल ।।छं०२२ । रू०२२ । भावार्थ-रू. १८–वीर चंद पंडीर के पुत्र को प्रमाण मानकर छै कोस पर मुकाम करती हुआ चौहान मुड़कर चढ़ चला। रू० १६----गोरी की सेना से ( या गोरी की सेना विशेष से ) भिड़ने के लिये वह सीधा पंजाब को प्रमाण करता हुया गया और पूर्व तथा पश्चिम से चौहान और सुलतान (क्रमश:) [ परस्पर मिलने (भिड़ने) के लिये चले । | रू० २०---जो गुप्त-चर कन्नौज चल दिये थे वे उस स्थान (कन्नौज) पर पहुँच गये और उन्होंने कमज्ज (जयचंद) से चौहान की सारी कथा सत्य प्रमाणित कर कही। रू० २१--[दूत वचन जयचंद से] श्रेष्ठ गोरी ने चौहान को रेवा नदी के तट पर गया सुनकर चुपचाप एक सेना सजा ली है। " रू० २२---दूत ने ( फिर ) कहा- और ) संभल का राजा अखेट खेल रहा है। रेवा तट पर जहाँ अच्छे जानवर मिलते हैं उसने जाल लगा रक्खे हैं। (१) ता०—-मंड (२) ए०–धधार ।