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( ४२ } स्मरण रहे कि दूसरे दूत के वचन धे रू० ३६ से प्रारंभ होकर अगले ६० ४१ की समाप्ति की एक पंक्ति कम तक जाते हैं । “सोसार' में केवल एक हो दूत के आने का वर्णन है जबकि दूसरे दूत के आने का हाल ८० ३६ से स्पष्ट है । रासो-सार' की उपयुक्त वर्णन पढ़ने से पता लग जाता है कि उक्त सार लेखक दूसरे दूत के आगमन का हाल नहीं समझ सके और न उसके वर्णन के क्रम का ही । उन्होंने रू० ३८, ३६, ४० और ४१ में आये हुए नाम मात्र समझ पाये हैं । (२) दोहा और दूहा की मात्रा में कुछ भेद नहीं है । दूहा पुराना और दूहा नया प्रयोग है। उनमें से दूहा *दु+ऊह से बना है अर्थात् जिसमें दो ऊह हों उसे दूहा कहते हैं। और हिन्दी दोहा शब्द संस्कृत द्वोहा से इस प्रकार बना हुआ जान लेना चाहिए--+अ+उ = +व= द्व ! दु+ऊहा =द्व+अ +ऊहा= दु+ओ+हा=द्वोहा= हिन्दी दूहा । भाषा के प्रचार के समय इसको दूहड़िका वा दोहड़िका' भी कहते थे । उसका संस्कृत में लक्षण और उदाहरण यह है---मात्रा त्रयोदशकै यदि पूर्वं लघुक विरास । पश्चदि. कादशर्कतु दोहड़िका द्विगुणेन ।” तथा उसकी प्रकृित उदाहरण यह है:---- **माई दोहडि पठण शुण हसि कोण गौलि ! वृन्दावणी घणकुंज चाल कमल रसाल ।” अस्यार्थ:---हे माते: । दोहड़िका पाठं श्रुत्वा कृष्ण गोपाल हसित्व कमपि रसाल चलित: कुत्र वृन्दावन घन कुंजे वृन्दावनस्य निविड़ निकुंजे । राई इति क्वचित पाठ: तन्मतेन राधिका दोहडिका पाठ श्रुत्वा गुरु लघु व्यत्ययेन बहुधा भवति ।। | यह २४ मात्रा का छंद है। उसमें यति १३।११, १३।११ पर हैं। और उसमें ६ ताल होते हैं–४ ४, २ १२” , ४ ४'--,ऐसा दोहा गाने में ठीक दीपता है ।” [ १० रा ना० प्र० सं०, पृष्ठ २८१ ] ।। दोहा छंद की विस्तृत विवेचना मेरी पुस्तक चंद वरदायी और उनका काव्य” 98 २२० - २१ पर जिज्ञासु देख सकते हैं। | कवित्त । रचि हरवल सुरतन, साहिजादा सुरतांनं ।। षां पैदा महमूदं, बीर पंथी सु विहानं ।।। षां मंगोल लल्लरी, बीस द की बर पंचै । चौतेगी सब्याज बन अरि प्रांन सु अंचे ।। (१) ना०---चौ तेगी सहवाज ।।