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शब्दार्थ-रू० ४७–नौ = दिया [युद्ध के लिये आज्ञा दी] । प्रिथिराजं<पृथ्वीराज । राह केतु= राहु और केतु युद्ध लाने वाले पाप ग्रह हैं । जप दीन-जप दिया अर्थात् जप कराया दुरुट दारे दुष्ट फल टालने के लिये (=बुरे फल को हटाने के लिये) । सुभ काज<शुभ कार्य । जोगिनी<योगिनी, [ज्योतिष के अनुसार ६४ योगिनियाँ हैं जो पूर्व, उत्तर, अग्नि काण, नैऋत्य कोण, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य, ईशान (या- उ अ न द प वा ई) इन आठ स्थानों में घूमती हैं। ये अठि स्थान अष्ट चक्र' कहलाते हैं। भभौग=भ (नक्षत्र) + भोग । भरनी< सं० भरणी अश्विनी अादि २७ नक्षत्रों में से दूसरा नक्षत्र । सुधिरारी: यह 'सुभ रारी के स्थान पर लिखा गया जान पड़ती हैं । (सुभरारी<शुभरारी= युद्ध में शुभ है जो) । गुरु= वृहस्पति । गुरु पंचमि= पंचम स्थान के शुरु | रवि पंचम- पंचम स्थान के सूर्य । अष्ट मंगल= अष्टम स्थान के मंगल। नृप भारी= नृपके लिये अशुभ । कैइन्द्र<केन्द्र । बुद्ध-बुध ग्रह । भारत> ० भारथ<हिं० भारथ== युद्ध । भल = भला, अच्छा । कर त्रिशूल- हाथ में त्रिशूल चिन्ह । चक्रावलिय= चलय ( या मणि बंध ) में चक्र, [था----चक्र अवली= चक्र की पंकि]। सुभ वरिय<शुभ घड़ी, शुभ भिंती । राज बर=श्रेष्ठ राजा (पृथ्वीराज)। लीन बरः-श्रेष्ठ या वरदान लेकर अर्थात् लाभ उठा कर । चढ्यौ = चढ़ाई बोल दी । उदै<उदय होने पर । क्रूरह बलिय= क्रूर और बलवान ।। मोटरू० ४७ का उपर्युक्त भावार्थ निम्नलिखित प्रमाणिक आधारों से अभिज्ञ हो जाने पर स्पष्ट हो जावेगा ।। हुन् चतुर्थ दृशम बुध मंगल