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( ५८ } नृप ने अत्यन्त निषिद्ध (ग्रह शनि) की वंदना की । चन्द कवि कहते हैं कि ऐसा किसे न भावेगा [अर्थात्-पृथ्वीराज की ऐसी दोन भावना किसे न भावेगी । नोट-महान अवधि वाला मंद ग्रह ज्योतिष में शनि ही कहा जाता है। शनि तीस सास में एक राशि का भोग करता है । और १०७५६ दिनों में सूर्य की परिक्रमा कर पाता है । विवरण के लिए रू० ४७ में दिया हुआ ज्योतिघचक्र देखिये ।। | रू० ४६---शूरवीर प्रातःकाल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जैसे चकवा चकई सूर्य की ( अर्थात् दिन निकलने की--क्योंकि रात में उनका वियोग हो जाता है और प्रात: फिर संयोग होता है } } शूरवीर प्रात:काल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार सुरह (देवता, महात्मा या विद्वान् ) अपने बुद्धि ब्रल संवद्धन् की। शुरवीर प्रात:काल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार वियोगी जन क्योंकि वियोगावस्था में प्रेमियों को रात्रि अति कष्ट दायिनी हो जाती है ] । शूरवीर प्रात:काल को उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार कठिन रोगी क्योंकि प्रात:काल रोग कम हो जाता हैं। उन्होंने भी प्रातःकाल की उसी प्रकार वांछना की जिस प्रकार दरिंद्री दानी-कर्ण से मिलने की करता है । (और) पृथ्वीराज ने भी प्रात:काल की उसी प्रकार इन्छा की जैसे सती स्त्री अपने सतीत्व की ।। | शब्दार्थ-रू० ४८--उद्ध<सं० ऊर्ध्व= ऊपर। अबद्ध== (१) खुले हुए {२)<यायुध हथियार---परन्तु यहाँ हाँथों से तात्पर्य है । अध=नीचे । उपिंग=उगना, निकलना, उदय होना । महंवधि<मह अवधि=बड़ीअवधि वाला, ज्योतिष में सव ग्रहों से शनि की अवधि सुव से अधिक अर्थात तीस मास है। तीस मास तक यह एक राशि का भोग करता है । रू०४७ की टिप्पणी में दिए हुए ज्योतिष चक्र को देखने से भिन्न ग्रहों का भोग समय विदित हो जावेगा। बर:==श्रेष्ठ । निषेद ८ निषिद्ध-बुरा । घर निषेदभारी निषिद्ध अर्थात् वड़ा ही बुर । ह्मिोनले महोदय ने अहवधि' का अर्थ महासागर किया और वर निषेद का पाठ चरनि बेद करके उसका अर्थ अपना खेद ( चिन्ता) वर्णन किया हैं। } मंद <मन्द=शनि ग्रह से तात्पर्य है। बंदयो=वंदना की । को न=कौन नहीं ! भाइ=भाई, (क्रि०) भाना, अच्छा लगना । । | रू० ४६----प्रातः=यात:काल । सूर <सं० शुर। बंछई==वांछना करते हैं। चक्क चकिय-चक्रवाक। वि=सूर्य । सुर=(१) देवता (२)सुराह, युर जाने वाले अर्थात् महात्मा (३) स्वर--विद्वान् (ह्योर्नले) । सु-उसको