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रू० ४९ की इस पंक्ति का 'सु' शब्द बड़ा अर्थ पूर्ण है ,---:शुरवीर प्रात:काल की उसी प्रकार वांछनी करते हैं जैसे सु (=उस अर्थात् प्रात:काल) को वांछना वर रोगी ।” | इस रूपक की अंतिम पंक्ति का सार रास-सार' में इस प्रकार लिखा गया है.(पृथ्वीराज सूर्योदय की उसी प्रकार इछा करने लगा )--जिस प्रकार पति विहीना स्त्री संसार को असार जानकर पति की मृत्यु के साथ साथ छापने भस्मीभूत शरीर को भी भस्म कर देने की इच्छा करती है । | छेद दंड माली भय प्रात रत्तिय जु र दीसय, चंद मंद चंदयौ । भरे तमस तामस सूर वर भरि, रास तामस छंदयौः।। बर बज्जियं नीसांन धुनि धन, बीर बरनि अकूरये । धर धरकि धाइर कृषि काईर, रससि सूरस क्रूरयं ।। ॐ० ५८।। राज घंट घन किय रुद्र भनक्रिय, घनकि संकर उद्दयौ ।। रन नकि भैरियर कन्ह हेरिय, दंति दांन धन इयौ ।। सुनि वीर सइइ सब पढ़ई, सई सद्दई छंडयौ । तिह ठौर अद्भुत होत अप दुल, बंधि दुञ्जन पंडयौ ।। छं० ५६ । सन्नाह सूरज सजि घाट, चंद ऑपम राजई ।। [*]६ मुकुर में प्रतिव्यंब राज्य, कै] सन्त धन ससि साजई ।। बर फल्लि बंबर टोप औपत, रीस सीसस आइये ।। नष्पित्र हस्त कि भन चंपक, कमल सूरहि साइये ।। छं० ६० ।। बर बीर धार जुगेंद पंतिय, कब्बि ओपम पाइये । लजि मोहमाया छोह कल बर, १० धार तिथह। धाइयं ।।। संसार संकर बधि आज जिमि, अप्प बंधन हथ्थये ।। डेनमत्त गज जिसि नषि दीनी, मोहमाया सथ्थयं ॥ छंः ६१ । सो प्रबल महजुग बधि जोगी, सूनि रस देवयो । सामंत धनि जिति षिति कीनी, पत्त तरु जिमि भेवथ्रो ।। छं० ६२। रू०५०। (१) ए०-भेनषिय (२) ए०--भोरिय (३) ना०---होरिय (४) ए०--धनंजय (५) नto--सद्द असइइ छंडयौ (६) [ है }----पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है । ह्योर्सले महोदय ने अपनी पुस्तक में इसे लिखा है (७) ना०——ायो (5) न०–त रोस (3) नो०-धा (१०) ना०-करबल (११) ना०-तित्थह।