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चाचा । रासो सम्यौ १; संयोगिता नेम समय; Asiatic Journal, Vol. XXY, p. 284 ]। दंति = हाथ। सदइ = शब्द क्रिया ( अहाँ वीरों ने जयध्वनि की } } सबद पढढइ == शब्द 'पढे--अर्थात् मंत्रोच्चारण किया । सई सद्दई छेडयौ =( दूसरे लोगों ने भी ) वीर नाद किया। दुज्जन<सं० दुर्जेने==दुष्ट (यहाँ शत्रुओं की ओर संकेत है } } पंडयौ=खंडन हेतु, विनाश करने के लिये। सन्नाह (सं०)<हि० सनाह=कयन्त्र । सब्जि घाट-बाट सजाना ( सुशोभित होना )। चंद श्रोपम राजई-चंद को ऐसी उपमा सुन्दर लगी । फल्लि' बबर=उड़ते हुए तुरें । टोप = शिरस्त्राण' [ दे० 11ate No. I ]। औपत := पहनना, ओढ़ना; आमा । रीस सीसत' झाइये=उनके सर पर झुकते अाते हैं। नष्पित्र हस्त<हस्त नक्षत्र । भानु =सूर्य । चंपक=पुष्प विशेष (चंपा) । सूरहि साइये (सायए)=रों पर छा गए हैं या विखर गए हैं । स<रोसना या रिसना-धीरे धीरे चूना या गिरना । जुगिंद पंत्तिय =योगियों की पंक्तियाँ । कब्बि<कवि । श्रोपम=उपमा । कल बर<करबल = तलबार । कलवर धार तिथ्यह धाइयं तलवार की धार रूपी तीर्थ पर दौड़ते हैं। संकर < हि सीकड़, सॉकल<सं० श्रृंखला । नत्र दीनी =नष्ट करना । प्रबल सह जुग= महान् प्रबल योग (शक्ति) | बंधि जोगी = बंधा हुआ योगी । मूनि<सं० सुनि [ तपस्वी, त्यागी सत्यासत्य का विचार करने वाला है। श्रारम देवयो=देव तुल्य अानन्द पाता है। सामंत धनि=सामंतों में धन्य या सामंतों के स्वामी --यहाँ पृथ्वीराज की ओर संकेत है । धनि= धनी, स्वामी, रजा । जिति घिति-पृथ्वी को जीत कर । बित्ति< सं० क्षिति । पत तरु जिमि भेवयो= वृक्ष के पत्तों सदृश कुचल करके। नोट---८० १०.८वे सच्चे स्वामि सेवी एवं समरभूमि में शरीर त्याग कर स्वर्ग में अप्सराओं से मिलने की अभिलाषा से भरे हुए राजपूत बच्चे उत्साह अज और अातंक सूचक ध्वनि करते हुए शत्रु सेना की तरफ इस तरह बढ़ते जाते थे जैसे मद से भीगे हुए गण्डस्थल वाला मदोन्मत्त मातंग मेघस्पर्शी उत्तंग तरुवर की तरफ उसे तोड़ने के लिये बढ़ता जाता है । रासो-सार', नृष्ठ १०१ । । उपयंक़ विवेचना का श्रम स्पष्ट है ।। दंडमाली छंद----यह हरिगीतिका या महीसरी छंद के बिलकुल अनुरूप है। हरिगीतिका मात्रिक सम छंद है । रामचरित मानस में यह छेद हमें अनेक स्थलों पर मिलता है । छंद के प्रत्येक चरण में सोलह बारह के विश्राम से अट्ठाइस भात्रायें होती हैं और अन्त में लघु गुरु होते हैं। इसका रचना