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७७ ) ओर लगते हैं । बज्ज<वज्र । झर=सूखे ( यहाँ जलते हुए' का संकेत है ) । तिनं धरह तुडउनके धड़ टूटते हैं । दुहुँ = दोनों । कुम्भ कनपटी। भर रसं० भन्। करके=हड्डी ; ( उ०—लेखनि करौ करंक की जायसी) । अहुईं = फूटना । श्रोन<श्रोणित= रक्त ! भोमं = पृथ्वी । अपी बिंव राजं = ऐसी सुन्दरता हो जाती है। मेघ बुडदे = मेघ की बुढ़ियाँ, बीर बहूटियाँ। पराक्रम्म राजं= पराक्रमी राजा । प्रथीपत्ति(पृथ्वीपति : पृथ्वीराज । रूट्यौ रूठना ( यहाँ क्रोध पूर्वक' का संकेत है)। रुधि= रुधकर । समं= साथ । जंग<फा० ५-१०-युद्ध । जंग जुट्यौ = युद्ध में भिड़ा रहा। रू० ६२-तेज छुट्ट= साहस भंग हो गया। सुवरसुभट= श्रेष्ठ वीर । दिय धीरज-धैर्य दिया, प्रबोधा । तारातार मारूफ खाँ । म = मेरे । उपभै (उभ्नै )=उपस्थित होते । भीर=कष्ट । परीई न वारु=इसबार पड़ी ही नहीं। छंद मोतीदाम रतिराज रु जोवन राजत जोर । चंप्यौ ससिरं उरे सैसत्र कोर ।। उन मधि सद्धि मधू धुनि होय । तिनं उपमा बरनी कवि कोय ।। ॐ० ६१ । सुनी बुर अगिम जुब्बन बैन । नच्यौ कबहूँ न सु उद्दिम मैंन ।। कबहुँ दुरि क्रेनन पुच्छत नैन । कहौ किन अब्ब दुरी दुरि बैन ।। छं० ६२ । ससि रोरन सैसव ढुंदुभि बजि । उमै रतिराज स जोवन सञ्जि ।।। काही वर श्रऔन सुरंगिय रजि । चपे नरम दोउ बनं बन भनि ।। ॐ० ८३ ।। इयू मीन नलीन भये अति रज्जि । भय विभ्रम भारु परीवहि नजि ।। सुर मारूत फौज प्रथमं चलाइ' ।। गति लजि सकुच्छि कछे मिलि आई ।। छं० ८४) (१) ए० कृ० को-कोह, कोय, होह; ना०—जोय (२) एe---जुद्धन (३) भो० ए० को०---पुच्छन (४)-सुजोवन; ए०-सजीवन (५) ना०–रन; ए० के० | को०----नर (६) ना०—रत (७) ना--परी हि नज्म हा०-परी न हि *जि (८) हो०--चहाइ(६) ना०—सँकुधि; हा०—संकुच्चि ।