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( ७६ ) (वसंत में) शीत से दाध प्राणियों को धूप से कष्ट नहीं होता है। (यौवन में) प्रेम का संचार मन में होता है और वही उर ( हृदय ) में भय का संचार करता है । ( वसंत में ) वृक्षों में पतझड़ हो जाता है परन्तु पत्तों के निकलने की फिर अशा रहती है । ( यौवन में ) अभूिषण विहीन होने पर भी बाला का मुँह सुंदर रहता है । ( वसंत में ) कोयले अपना स्वर अौर भ्रमर अपने पंख सजाते हैं। ( यौवन में ) उड़ते हुए भौंरों के स्थान पर नवेलियों की काली अाँखें दिखाई पड़ती हैं ! अपने लिये चतुरंगिणी सेना सजाने के लिये ( वसंत ने ) बन के वृक्षों की पंक्तियाँ सजाई हैं और ( यौवन पर ) अाक्रमण करने के लिये शैशव ने ( दं दुभी या ढोल ) बजा दिया है। कवि की बुद्धि अनेक उपमाओं का कथन नहीं कर सकती। इन दो अवस्थायों (शैशव अौर यौवन) के मिलन ( वय:संधि ) का वर्णन चंद के लिये कठिन है। | शब्दार्थ-रू० ६३----रतिराज<ऋतुराज=वसंत (कामदेव का साथी) । जोबन<यौवन । राजत-सुशोभित । जोर=जोड़ा। प्यौ = दाबकर, समाप्त करके । ससिरं=शिशिर ऋतु । उर शैशव कोर=शैशव के हृदय के छेदकर अर्थात् शैशव काल को दबाकर । उनी मधि मद्धि=उन (ऋतुराजे और यौवन) के बीच में । मबू धुनि होय=मधुर वार्तालाप होता है । जुब्बन<योवन । बैन <वचनः शब्द ! उद्दिम<सं उद्यम (उत+यम+अल )= उत्साह पूर्वक } मैंन < सं० मन= कामदेव ! दुरि=दौड़कर ! क्रेनन<क = कान | दुरी दुरि= अति हुशा; दौड़ता हु । सास रोरन = शिशिर का शब्द। उभे<उभय :दोनों । श्रौन (श्रवण-कान ! सुरं श्रिय= सुरंग लाल रंग जो होली के अवसर पर फेंका जाता है) । रज-सजक्रर । दर दोउदोनों मनुष्य (ऋतुराज और यौवन ) । चपे=दब गये ( यहाँ छिप गये से तात्पर्य है । मीनमछलियाँ । नलीन< नलिन = कमल । अति रजि-अत्यंत ( जिते ) प्रसन्न होकर । विभ्रम-संदेह । भारु-=भार, बोझ । परीवहि<परिवाह-वहन करना, ढोना । भवभय } तुच्छ——यह प्रेम के लिये प्रयुक्त हुशा जान पड़ता है। नज्जि <सं०/नज = शरमाना, लाना; लज्जा' । मारुतवायुदेव का नाम । मुर= मुड़ना; अपनी बारी आने पर। फौज<: अ० : = सेना। सकुन्छि< संकोच । कछेकळे == एक साथ, इकटठे। दहिजलाना ! कंदहि=कष्ट पहुँचाना; नाश करना । सौतम-शीत । अंष = झाँखें । मत्तिय=मति, बुद्धि । जूह< सं० यूथ> जूथ = समूह । अनंत= वर्णन । बैसंधय<सं० वय::संधि दी अवस्थाअों-शैशव और यौवन का----मिलन। बंद कठौर= चंद कवि के लिये कठिन विषय है।