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( ८५ ) कवित्त खग्रा हटक्कि जुटिक्क, अमन सेन समंद गजि । हय बाय बर हिल्लोर, गरुआ गोइंद दिधिष सजि ! अगस3 अल अभंग, नीर असि मीर समाहिय । अति दल बल हुट्टि, पच्छ लज्जी परवाहिय ।। रज तज्ञ रज्ज मुक्कि न रह्यौ, रज न लगी रज रज भयौ । उच्छंगन अच्छर सों लयौ, देव बिमानन चढ़ि गयौं । ॐ०१००१ रू०६६। भावार्थ-रू.० ६६---जब वह ( वान शौरी या खिलजी 5 ) तलवार रोक कर खड़ा हुआ तो यवन सेन समुद्र की भाँति गरने लगी। हाथी शौर घोड़ों को बड़ी लहर सदृश अाते देख गश्न गोइंद ने अपने को आगे बढ़कर युद्ध करने के लिये ) सजाया । अगम्य, अटेल, अभंग जल की धार सदृश मीर सामने झाये [ या----अगम्य अठेले अभंग जल की भाँति अस्सी मीर आगे बढ़े ] और अत्यधिक दल बल से आहुष्टि ( गरुअ गोद ) को लज्जित कर प्रवाहित कर दिया अर्थात् शाहुद्धि को मार डाला]। यद्यपि उसका (पृथ्वी का राज्य) चला गया परन्तु राजा होने से वह न रुक सका। उसके धूल नहीं लगी ( अर्थात् इस प्रकार के विषम युद्ध से वह भयभीत हो विमुख नहीं हुआ वरन् वीरता पूर्वक युद्ध करके वीर गति को प्राप्त हुशा; वारजन लरिरा' का अर्थ ‘धूल में लगकर या गिरकर' भी लिया जा सकता है) या - वैरी के बड़े दल बल को रोकने में समर्थ होकर उसने अपने पक्ष की लज्जा को धो दिया है। राज्य (वैभव) त्याग रूपी रज (रज्जु = रस्सी) उसे रोक न सकी, वह रज रज (टुकड़े टुकड़े) हो गया परन्तु उसने अपने रज (धूल) न लागते ; (आर) बह रज (=आकाश=स्वर्ग) में पुन: रज (=राजा या राज्यपद पर) हो गया । अप्सराओं ने उसे गोद में ले लिया और देवताओं के विमान पर चढ़कर वह { वर्ग लोक ) चला गया । नोट- वन सेना के कई एक सिपाहियों ने मिलकर माधराय को मार डाला । यह देखते ही ईद राव कः भाई यवन दल रूपी समुद्र को दीर्धकाय मगर की भाँति मथता हुथी खिलजी खाँ के ऊपर टूट पडा परन्तु उसे भी कई एक मुसलमान सिपाहियों ने काट कर टूक टूक कर दिया । रास-सार, पृष्ठ १०२ । प्रस्तुत कृचिंत्त में दीर्घकाय मगर या उसका पथ्यबाची कोई शब्द नहीं है । रासो-सरि लेखकों की मगर' की उपमा सचमुच (१) ना०—-पग्र, हा०-----थो (२) ना०-समंद (३) ना०----अनम)