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( ८७ ) प्रवाहित कर दिया, बहा दिया । रज=पाँच ‘रज' आये हैं जिनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार किये गये हैं-(१) रज = राज्य, वैभव (२) रज्ज=राजपद, रस्सी (३) रज=धूलि, (४) रज-प्रकाश (स्वर्ग), धूलि कण (५) रज= राजा, धूलि कण । -रज-रज' का ‘टुकड़े टुकड़े अर्थ भी किया गया है। उन्छेको उत्संग-गोद; ! कुछ विद्वान् उछग का संबंध सं० उत्साह से भी अनुमान करते हैं ] | अच्छर(अप्सरा । सों लो=ोर्नले महोदय इसका सो लयम पाठ करके सुला लिया’ अर्थं करते हैं। अच्छर उच्छंगन सों लयो -अप्सरायों ने उसे गोद में ले लिया; अप्सराओं ने उसे बड़े उत्साह से उठा लिया। देव विमानन चढ़ि गयो= देव विमानों में चढ़ कर गया । | कवित्त परि पतंग जै सिंघ, (१) पतंग अप्पुन तन दज्के । (इन) नव पतंग उति लोन, करे अरि अरि १ धज धज्जे ।। (उह) तेल ठांम बाति, अगनि एकल विरुझाइय। (इह) पंच अप४ अरि पंच, पंच अरि पंथ लगाइय।। आ रन्नि केंच्यारी बर बरयौ, दैइ ६ दाहन दुज्जन दुबन । जीतेथ असुर महि मंडलह, और ताहि पुज्जै कबन ।। छ०१०१। रू०६७। भावार्थ-रू० ६७-–पतंग जयसिंह मारा गया । उसने अपना शरीर पतिंगे के समान युद्ध रूपी दीपक की लौ पर कूद कर जला दिया । शत्रु की धज्जी धज्जी उड़ाकर वह पतंग (सूर्य) की गति में लीन हो गया [अर्थात् सूर्य लोक को चला गया। जिस प्रकार [जुगनू] अकेले ही दीपक बुझा देता है उसी प्रकार इसने भी मरले भरते ] अपने पाँच शत्रु के पंच ( =पंच तत्वों से निर्मित शरीर ) को पंच (=पंच तत्वों) में मिला दिया, तश्री दुर्जनों (=शत्रु) को दवन (अग्नि) का दाहन ( =आहुति ) देकर रण रूपी श्रेष्ठ कुमारी (कन्या) के वरण किया, महि मंडल के असुरों (= वचनों) को उसने जीता (अर्थात् पराजित कर दिया), कौन उसकी बराबरी कर सकता है ? नोट--(१), (इल), (इ) पाठ १० प्र० स० की प्रतियों में नहीं हैं, ड० मैले ने इन्हें दिया है। (१) अरि अर' हे स्थान पर अन्य प्रतियों में केवल एक अ’ि मिलता है। १३) ना० ---बाज़ी ( ३ ) ना• ; मो० ---शुगन्नि ( ४ ) न० -अप्प (५) ना--पंच (६) न०६ ।।