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दोष औप लुटि किरच, सार सारह जरि भरे । मिलि नच्छित्र रोहिनी, सीस ससि उड़गन चारे ।। उठि परत भिरत भंजत अरिन, जै जै जै सुरलोक हुआ । उठ्यौ कबंध' एल पंच चव, कौंन भाइ केयौ जु धुअ}}छं० १०२।९० ६८} भावार्थ-रू० ६८-जहाँ बीर [ भान ] पुंडीर डटा हुअा था वहाँ सुलतान की सेना ने उसे घेर लिया और अपने चमकते हुए तेज़ शस्त्रों से उसके सिर पर वार किया। उन्होंने अपने भालों से उसका चमकदार टोप टुकड़े टुकड़े कर दिया (उस समय ऐसी शोभा हुई मानों) रोहिणी नक्षत्र के योग से सर रूपी चंद्रमा के चारों ओर तारे धूम रहे हों । वह गिरता पड़ता और भिड़ता हुशा शत्रुत्रों का नाश कर रहा था, [ यह दृश्य देखकर ] सुरलोक में जय जय को ध्वनि हो उठी। अंत में मारे जाने पर उसका कबंध चार पाँच पल तक खड़ा रहा । हे भाई, ध्रुव को कौन टाल सकता है ? | शब्दार्थ-रू.० ६८---प्पौ- रोपना, स्थापित करना (शहाँ डटे रहने से तात्पर्य हैं)। बीर पंडीर--यह न तो चंद पुंडीर है और न चामंडराथ पंडोर है वरन् पंडीर वंशी कोई अन्य बीर है। जहाँ तक अनुमान है अगले रू० ८४ में वर्णित यह भान पुंडीर है। (फेरी = घूमी । पारस-चारों ओर; (पार्श्व = निकट); ( स०<पारस्य- पारसी ); [<अप० पालास<प्रा० भल्लालसं० पर्यास (परि + अस=घूमना): घेरा । जिससे मंडल, चक्र की भाँति जत्था या सेना अर्थ निकाले जा सकते हैं)] । [नोट---चंद ने पारस शब्द का व्यवहार रासो के अनेक स्थलों पर किया है । उ----सम्यौ ६१, ॐ० १६२२-१६२३०-१६ इसी राति प्रकासी । सरं कुमुदिनी विकास ।। मंडली सामंत भासी । कविन कल्लोल लासी ।। पारसे रज्जि चंदम् । तारस तेज मंदम् ।।” (प्रभात की शोभा वर्णन)----अर्थात्----इस प्रकार रात्रि प्रकाशित हुई, सरों में कुमुदिनी विकसित हुई, सामंतों की मंडली भासित हुई, कवियों ने अपनी कल्लोलें सुनाई, चंद्रदेव का पारस (= घेरा) रुपहला हो गया, तारा. गणों का तेज बंद हो गया। सम्यौ ६१, छं० १६२६---‘पारसयं पसरी रस इति । जानकि देव कि सेव अपंडलि ॥ हालि हलाल रही चव कोदिय । दीह भयौ निस की दिसि मंदिय }} और सम्यौ ६१-६६फिरि रुक्यौ प्रथिराज, सबर पारस पहुपंगिय । “परिस' का अर्थ “पारसी' नहीं लिया जा सकता । सच बात तो यह है कि पारस' शब्द के व्यवहार में न होने के कारण उचित (१) नाऊबंध (३) ना, कोन भाइ ।