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उतरी। विय बाजिय = दो घोड़े । उत्तर विथ बाजिय-दो घोड़ों पर चढ़ा । धरा= पृथ्वी । गिर< गिरि=पर्वत । कंदर=कंदरा, गुफा । गाजिय = । ज उठीं । पशुपंजलि<पुष्पांजलि | पूजत=पूजा की, प्रशंसा की। रिनह <रण (की)= युद्ध (की) । इक<अप० इक <प्रा० एक, एको, एगो, ए <सं० एक-- हि० एक ! पर सोधे सकल-सारा ढूढता पड़ा रहा । घेत==खेत< क्षेत्र | बंधे=बाँधे । धुनह=धुन ।। | ट रू० ७०-इधर जव खिलजी खाँ के मुकाबले में दो तीन अच्छे अच्छे बीर कास आये तव सारंग देव ने उस पर आक्रमण किया, सारंगदेव ने अपने घोड़े को एड़ देकर खिलजी खाँ के हाथी के मस्तक पर जी टपकार } इस अद्भुत कौशल से इधर तो हाथी चिकार उठी उश्वर सारंगदेव ने खिलजी खाँ को मार कर दो कर दिया ।” रासो-सार, पृष्ठ १०२ । रू० ६६ में जिस प्रकार दीर्घकाय मगर की कल्पना की गई है उसी हैं की एक मौलिक उद्भावना यहाँ भी है। कवित्त करी मुघ्ष हुई, वीर गोइंद सु अष्ष । कबिल पल जसु कन्ह, दंत दारुन दुहि नब्वै ।। संङ दंड भर्ये पंड, पीलवानं गज मुक्यौ । गिद्ध सिद्ध वेताल, आई अधिन प्रल स्क्यौ ।। बर वीर परयो भारथ बर, लोह लहरि लम्गत झुल्यौ । तत्तर पनि संम्हौ सु क्रत सिंह हक्कि अंबर डुल्यौ ।। छं० १०५ । ०७१। भावार्थ---रू !७१-बीर गोइंद के संबंधी हुइ ने एक हाथी की सँड़ जैसे ही पकड़ कर खींची ( या-अक्षय वीर गोइंद के संबंधी ने एक हाथी की सूंड वैसे ही हुई ( ऐंठ} दी ) जैसे कृष्ण ने कुबलयापीह के भयानक दाँत तोड़े थे । सुंड के दाँत टूट जाने पर पीलवान ने उसे छोड़ दिया तथा गिद्धों, सिद्धों और वैतालों ने आकर उस पर दृष्टि जमाई । ( परन्तु ) इस वीर युद्ध में श्रेष्ठ योद्धा (= कनक हुइ ) गिर पड़ा, तलवारों के बारों से वह झंझरी हो गया था, तार ख के सामने उसने अपनी वीरता दिखाई थी ( और ) उसका सिंह सदृश गर्जन सुनकर आकाश भी कप उठता था । शब्दार्थ–रू० ७१-करी == हाथी । मुष्प्रमुख (यहाँ हाथी की सँड़ से तात्पर्य है)। अहुई यह पृथ्वीराज का वीर सामंत था । अगले रू० ६४ (१) न०----जह (२) ना०—गिद्धि सिद्धि (३) ना०----लहरी (४) ना० गत (५) नासम्झौ सुक्रत; मैं—सम्है सुकृत ।