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अवतर ने सोइ उतपति गयौ, देवथान विश्रय बियौ । जसे लोक न सिवपुर ब्रह्मनुर भान थन मानै भिय४ }}छं०१०६ । रू०७४ भावार्थ-रू. ७४–(इस दूसरे दिन के युद्ध में) सुलग को पैदा करने घाला लखन जो जैत का संबंधी था मारा गया । देवी महामाया ने उस ( के शव ) को हुंकारते और झगड़ते हुए पाया । अपनी हुंकार से उन्होंने (लाश से) शिद्धों के यूथों को उड़ा दिया । गिद्धों से एक अप्सरा ने उसे लेना चाहा परन्तु न पा सकी [महामाया दुम उसे ले गई। आवागमन के बंधन से मुक्त होकर वह ऊपर चला गया और देवस्थान बालों को इस बात का बड़ा अाश्चर्य हुआ कि ( वोर लखन ) यम क, शिव लोक और ब्रह्म' लोक न जाकर (सीधा) सूर्य लोक जाकर सूर्य हो गया (अर्थात् सूर्य लोक में स्थान पा गया)। शब्दार्थ-रू० ७४-जैत-जैतसिंह मार । बंध-=भाई या अन्य संबंध: । सुलप-लखन का पुत्र था और लखन प्रमार वंश का था ( अगले रू० ८४ में लिखा है-'पर्यौ जैतबंधे सु पावार भानं) । अतएव सुलख भी प्रमार वंश का था अौर जैतसिंह प्रभार का संबंधी था। सुलप प्रमार (पवार या परमार) की वीरता के प्रकरण रासो के अन्य अागे के सम्बौ में पाये जाते हैं। संयोगिता अपहरण में पृथ्वीराज की सहायतार्थ यह भी गया था ! परमार सलध जालौर । जिन बंचि लिद गजनेस साह ।' सम्यौ ६१, छं० ६४५ ] अौर वीरता पूर्वक युद्ध करके मारा गया [कर नृपति सार नृप पंग दल । अब्बुञ पति जप सत्र किय । उग्रह्यो ग्रहनु प्रथिराज रवि । सल अल भुज दोन दिव। सयौ ६१, छं० २३६२ । ह्योनले महोदय को कथन है कि सुलेख इस युद्ध में मारा गया और यह बात उपयुक्त प्रमाणों से असत्व सिद्ध होती हैं वास्तव में भुत्व का पिता लखन प्रसार मारा गया है जिसके लिये ह्योनले महोदय ने सम्यौ ६१ के प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि लखन जीवित रहा अौर सुलरव मर गा-परन्तु ये प्रसाश तो उनकी बात का प्रतिपादन करने के स्थान पर उसका खंडन करते हैं क्योंकि ६ सयौ का लखन, प्रमार वंश का नहीं वरन् बबेल' था । सुलों के मारे जाने के वाद---दियौं दान पम्मार बलि । अरे सारंग समः पेल ।। मरन जानि मन मझझ रत । लरि लष्धन अचेल ।” सम्ब ६१, छं० २३६३ । और फिर भीषण युद्ध करके बत्रेला वीर भी वेत रहो । यथा-~-- जीति समर लष्पन बचेल । अरि इनिग घर झर ।। तिधर तु धरनहिं धुकंत । निवरंत अद्ध धर }} (३) बै०-भयौ (३) हा०-भयौ ।