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( १३६ ) कवित षा हुसेन ढरि परयौ, अस्व ऊनि परयो सार बहि ।। कुझ फेरि सत सीव, पनि उजबक्क घेत्त रहि ।। षां ततार मारूफ, षांन षांनं वट घुम्मै । तब गोरी सुबिहान, आइ दुञ्जन् मुष झुम्मै ।। कर तेर झल्लि मुट्ठिय सुवर, नहिं सुरतानह पन करी । अदि हार दीह पलटे सुबर, तबहिं सहि फिर पुरी।। ॐ०१४५ । ०६२।। भावार्थ---८० ६१---रंभा ने कहा कि मेनका सुनो, “उस जुथ ( लाशों के देर ) में उस ( अपने कॅन ) को मत खोजी । उसे शत्रु के संमुख न मुक जानकर ग्रह से रथ जुत कर आया था । ग्रह से रथ जुत कर आया और | ( उसे बिठा कर ) ब्रह्म और शिव लोक छोड़ता हुआ चला गया । अब तो वह विष्णु लोक में वास करेगा या सूर्य के शरीर में अपना शरीर मिलाकर शोभित होगा । अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा ) । सुंदर इंद्र वधू ( इन्द्राणी ) प्रसन्नता से रोमांचित हो, ( अपने माथे पर ) वश में करने वाला ( सिंदूर ) बिंदु जगा कर उसकी पूजा करने गई हैं । उस ( वीर ) की उपमा नहीं दी जा सकती, वैसा कोई न हुआ है और न कहीं अवतार ( जन्म ) लेग [ या--उसकी बराबरी के योग्य' जन्म हुआ। कोई नहीं है ] ।” नोट---अगले दिन युद्ध प्रारंभ हो गया--- रू० १२---( ग़ोरी का योद्धा ) हुसेन खाँ ( अाक्रमण करने के लिये अागे ) दौड़ पड़ा अौर ( उसके पीछे ) घोड़सवार सेना चल पड़ी। युद्ध पलटने के लिये [ वा-युद्ध से भागने वालों को पलटने के लिये था--हारता युद्ध जीतने के लिये 7 उजबक इत्र रणक्षेत्र में ( पीछे ) सीमा बनाये ( अथई । रोक लगाये ) डटा रहा । तातार मारूक ख़ाँ तथा अन्य ख़ान एक साथ घूमने लगे, ( उसी समय ) री भी शीता से आगे बढ़ कर शत्रु ( पृथ्वीराज की सेना ) के सामने झूमने लगा | सुभट ( ग्रेली) ने हाथ में तलवार लेकर मुट्ठी धुमाते हुए प्रण किया कि मैं सुलतान न रहूँगा यदि अज ( का दिन) पलटने ( अर्थात् शाम } तऊ ( शत्रु को ) भलीभाँति पराजित न कर दंगा ( और इतना करने पर ) तभी फिर शाह पुकारा जाऊँगा ।। (१) नो०-झुझ . (२) ना०-घेत (३) मो०—पुष्ट्रिय }