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समै एक बत्ती नृपति, बर छंड्यौ सुरतन ।। सपै राज चहुन यौं १, ज्यों ग्रीषम मध्यांन ।। छं० १४६ } रू० ६५ ।। भावार्थ-रू० ६४---सुलतान शोरी को पकड़ लिया, हुसेन ख़ाँ को नेट कर डाला, ( किर ) दातार निसुरति स्वाँ को झोली बना कर बाँध लिया । सुलतान के चयर और छत्र रखने का समय लुट गया (=चला गया) । रेशा भूमि में स्थान | स्थान पर चौहान की जय जयकार होने लगी। दिल्लीश्वर, बँधे हुए सुलतान को हाथी पर बाँध कर दिल्ली (ले) गये। नर, नाग और देवता स्तुति करने लगे कि (महाराज पृथ्वीराज का) तेज पृथ्वी पर इंद्र के समान प्रकाशमान हो [ या--महाराज पृथ्वी पर इंद्र सदृश प्रशस्वी हों । । ० ६५-कुछ समय बीतने पर पृथ्वीराज ने सुलतान को मुक्त कर दिया । चौहान राजा उसी प्रकार तप रहा था जिस प्रकार ग्रीष्म ( ऋतु } में मध्याह्न को सूर्य । अर्थात् चौहान का बल और पुरुषार्थ ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल के सूर्य के समान था } } शब्दार्थ--रू० ६४----उपार=नष्ट कर दिया या उखाड़ दिया। रघत= रखने का अषत<फा० ।-समय } लुटे-लुट गया। सुलतानो =सुलतान गोरो का । जुग जुग-जगह जगह; युग युग । वानी<सं० वाणी । गय= गये । दिल्ली: दिल्ली, वि० वि० १० में] । दिल्ली नृपति= दिल्ली नृए ( अर्थात् पृथ्वीराज )। दिपति = प्रकाशित हो, दिदै । दीप=प्रकाश, तेज, यश | दिवलोकपति = इन्द्र । रगत बवत<रत बतडेरा डंडा । | रू० १५-समै<'समय । बत्ती<सं० बात । बसी<सं० व्यतीत= बीता । ॐड्यौ = छोड़ दिया, मुक्तकर दिया है। नोट-- १ ) रू० ६४ के प्रथम दो चरणों का अर्थ ह्योनले महोदय ने इस प्रकार लिखा है-**The Gouri Sulbar being captured, Husain Khan now prevailed ( in the battle ); and the Tattar Nisurati Kban, making up a litter, put the Shah on it pp. 66-67, (२} रू० ६४ में ‘रप्रत बत' शब्द का एक साथ अर्थ करने से डेरा डंडा होता है और इसी अर्थ में इ० रा० में हम इसका प्रयोग पाते हैं (१) न०---यौ ।