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कन्नौज के अन्य भए जैसे सईदया, कुस्थल, कुशिक श्रादि भी साहित्य में पाये जाते हैं। ‘युवान वाँ।' का कथन है कि इस नगर का नाम कुसुमपुर ( पुष्पों का नगर) था परन्तु ऋषि { the great tree-filhi ) के श्राप से बाद में कन्यकुब्ज हो गया। कान्यकुब्ज केवल नगर का नाम नहीं था वरना नगर के चारों छोर के एक सीमित प्रदेश को भी कान्यकुब्ज कहते थे जैसे आजकल वम्वई और मद्रास कहलाते हैं ।। पुराणों और महाभारत में हम कन्नौज के राजशों का हाल पढ़ते हैं। युधिष्ठिर ने दुर्योधन के कुशस्थल (कन्नौज), वृकस्थल, माकन्दी, वारणवट और पाँचवाँ कोई एक नगर माँगे थे । पा लि साहित्य में हम पढ़ते हैं कि यित्रिंश । नामक स्वर्ग से भगवान् बुद्धदेव कन्नौज में ही उतरे थे और उपदेश दिया था । कन्नौज का ऐतिहासिक वर्णन फाहियान की यात्रायों में भी मिलता है । छठी शताब्दी में कन्नौज नौखरी राजाशों की जानी था । ईशानवर्मन और सर्ववर्मन के राज्यत्वकाल में कन्नौज राज्य का प्रभुत्व और प्रताप बढ़ा जिसके फलस्वरूप गुप्त राजाओं से युद्ध हुए। अंत में कन्नौज मगध का स्थानापन्न हो राजनैतिक केन्द्र हो गया । मौखरियों के पश्चात् सातवीं शताब्दी में थानेश्वर के हर्ष ने केनौज का शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया। हर्ष की मृत्यु होने पर पचास वर्ष तक कन्नौज अशान्ति अौर विद्रोह का खाड़ा रहा । फिर प्रतिहार 1ोज प्रथम अरि महेन्द्र पाल' प्रथम के इसनकाल में कन्नौज में शान्ति स्थापित हो उन्नति प्रारम्भ हुई, और इसका विस्तार सौराष्ट्र, मगध, राजपूताना, गोररह्मपुर, उज्जैन, करनाल और बुन्देलरचण्ड तक हो गया। सन् १०१ ई० में महमूद ग़ज़नवी के अाक्रमण ने कन्नौज साम्राज्य को धक्का पहुँचाया, परन्तु गाहड़वाल राजाशों ने क्षति पूर्ति कर उसे पुनः समृद्धिशाली बना दिया । अन्त में बारहवीं शताब्दी में सिहाबुद्दीन गोरी ने सन् १६६२ में चौहान साम्राज्य उखाड़कर' (Firishta-Briggs-Vol. I, p. 277)--‘सन् ११९४ में कन्नौज सम्रिाज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला' [ ताज-उल-मअसीर ; History of India. Illiot.• Vol. 31, p. 297 ] । साम्राज्य तो ध्वंस हो गया और बड़े-बड़े साम्राज्य के वैभव पराभव का साक्षी केन्नौज एक साधारण नगर मात्र रह गया ।। आल्हा ऊदल की रिहदरी, जयचंद के दुर्ग और संयोगिता के गंगातट पर महल के खण्डहर आज भी अपने युग की गाथाश्रों की स्मृति के प्रतीक हैं ।