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इस एक वृक्ष की शाखायें तीनों लोकों में फैली हुई हैं तथा जय और पराजय इसके प्रड्यात रा हैं : भुगति भूमि किय क्यार । वेद सिंचिय जल यूरन }} बीय सुवय लय मध्य । ग्यांन अंकू रस जूरन ।। त्रिगुन साख संग्रहिथ । नास बहु पन्त र छिति ।। सुझम सुमन फुल्लयौ । मुगति पक्की द्रव संगति ।। दुःज सुमन डसिय बुध पक्व रस । वट विलास गुन पिस्तरिय ।। तरु इको साख त्रयलोक महि । अजय विजय गुन विस्तीरथ ॥ ४, स० १ इस प्रकार धर्म के आधार पर कर्म करते हुए मुक्ति-प्राप्ति की प्रशंसा का इस वीर गाथात्मक कृति में विशेष प्रयोजन है क्योंकि इस क्षत्रियलोकदर्श काव्य में स्वाभि-धर्म के लिये इण रूपी कर्म करके मुक्ति-प्राप्त करने का विधान आद्योपान्त मिलता है। . अन्थ की समाप्ति में उसका माहात्म्य कथन करते हुए कवि ने जहाँ अन्य अनेक वरदान दिये हैं वहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति की ‘बात भी कह डालती है पावहि स अरथ अरु भ्रम्म काम् । निरमान मोष याहि से धाम ।। २३२, स० ६७ (७) अपने मंगलाचरण में चंद ने इस प्रकार स्तुति की है--‘अदि देव उँ को प्रणाम कर, गुरुदेव को नमन करके और वाणी के चरणों की बंदना करके, मैं स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी को धारण करने वाले श्रेष्ठ इंदिर के पति (अर्थात् विष्णु) के चरणों का अाश्य ग्रहण करता हूँ, दुष्टों का निश्चय ही विनाश करने वाले, देवताओं के नाथ तथ सिद्धि के आश्रय ईश (अर्थात् शंकर) की वंदना करता हूँ (या ईश की पादुकाओं का सेवन करता हैं) और स्थिर, चर तथा जंगम सब जीवों के वरदानी और स्वामी ब्रह्मा को नमस्कार करती हैं. उ अादि देव प्रनम्य जुम्य गुरयं, वानीय वैदे पर्य। सिष्टं धारन धारयं वसुमती, लच्छीस वनश्रयं । तं गं तिष्ठति इस दुष्ट दहनं, सुनाथ सिद्धिश्रयं ।। | थिचरजंगम जीव चंद नमर्य, सर्वेस वदमयं ॥ १, सं० १। इसके उपरान्त कवि ने धर्म, कर्म और मुक्ति की स्तुति की है। (छं० २-४) तथा पूर्व कवियों की स्तुति करते हुए अपने काव्य को उनकी उच्छिष्ट कहा.है :(छं० ५१०) और अपनी पत्नी की झांकी की समाधान