पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/९४

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मुरिय' न श्रित चालुक । धरिये रस रोस कन्ह हिय ।। पैर चलिय दरबार । सीह ज घट्टि उहड्रिय }}७६, से० ५; (ब) इच्छा या अनिच्छा से अपनी सीमा की प्रमाणित करती हुई रात्रि अाई ओ सैनिकों और पथिकों को समान रूप से मिली । निशा का अागमन जानकर नाड़े बज उठे । धूल के धंधे ऊपर उठकर लौटे जिससे कुए भर गये : छुटी छंद निच्छंद सीमा प्रमानं । मिली ढालनी माल राही समाने ।। निसा मान नसान नीसान धूयं । धुझे धुरिनं मूरिनं पूर कू ।। १०७, स० २७; (स) सन्ध्या-काल आया, आकाश में चन्द्रोदय हुआ और दौ प्रहर रात्रि बीती: सांझ समय साँस उग्र भभ । इ जामिनि जुग जाम ।। ; (द) बजी संझ घरिवार | सार बुज्यौ तन कंझर ।। जनु कि बज्जि झननंक । ठनकि बन टौथ सु उच्चर ।।। अनल अगि सम जबिग । जेन धजि बैधि सलग्राई ।। मनु द्रप्पन में वैठि । नेत बडवानल जय' ।। धन स्यांम पीत रत रंग वर । त्रिविधि वीर गुन बर भरिय ।।। हर हार गठिठ रुठ्ठि असां । किस उतारि पच्छ धरिये ! ४६५,सं० २५ युफदंत ( पुष्पदन्त ) ने अपने अदि पुरश' में ऋतु-वर्णन बड़ी कुशलता से किया है। उसी प्रसंग में सन्ध्या का भी अनूठा वर्णन है--दिनेश्वर का अस्त होना पथिकों ने शकुन पूर्ण समझा । जैसे दीयक जलाने की बात कही गई वैसे ही प्रियतमाओं के अभर प्रदीप्त हो उठे। जैसे सन्ध्यः रारा शुक्ल ( लालिमा पूर्ण } हुई वैसे ही वेश्याओं का राई बढ़ा । जैसे भुवन संतप्त हुए वैसे ही चक्रवाक भी व्याकुल हुए। जैसे-जैसे दिशा-दिशा में तिमिर बढ़ने लगा वैसे-वैसे दिशा-दिशा में नारिणियाँ जारों से संयोग करने लगीं । जैसे रात्रि में कमलिनी मलिन होकर मुकुलित हो गई वैसे ही विरहिणी का मुख भी सुकुलित हुअ । जिस घर के कपाट बंद हो गये उसे वल्लभ (पति) रूपी सम्पत्ति प्राप्त हो गई। जिस कार चन्द्धमा ने अपनी किरणों का प्रसार किया यैसे ही प्रिया ने अपने हाथों से अपनी केश-राशि बिखरा दी। जिस प्रकार कुवलय के पुष्प विकसित हुए उसी प्रकुर मिथुन-क्रीड़ा ने भी विकास प्राधा,...: