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( ८६ ) किरणें बिखेरने लगे। जदास कल गये, कुमुद के सम्पुट बन्द हो गये और अरुण वरुण ( रक्ताभ सूर्य ) तारण के सि का कारण हुए। शूर सामंतों ने उनके दर्शन किये और अधर्म को धर्म रूप में उनके शरीर में विलसित पाया : सरद ईद प्रतिव्य छ । तिमर तौरन किरनिय तम ।। उरिग किरन उर भनि | देव बंदहि लु ले क्रम !! कमल पनि सारथ्थ । अरुन संभारति रुपै ।। जमुन सात जम तात् । 'करने केचन कर रघे १५ म् जवस ब्यौ कमुद् । अरुन बरु तारक त्रसहि ।। सामंत सूर दरसन दिप्रिय । पाप धरम तन बसि लसहि ! १६८, स० ४४ (अ) जिनका शरीर अमृतमय है अर्थात् जिनके कारण वनस्पतियाँ उत्पन्न होकर शारीरिक व्याधियों का हरण करती हैं { इत्यादि ), सागर को प्रफुल्लित करने के जो मूल कारण हैं, कुमुदिनी को विकसित करने वाले, रोहिणी (नक्षत्र) के जीवनदाता, कन्दर्प के वन्धु, मानिनियों का मान मर्दन करने वाले और रात्रि रूपी रही से रमण करने वाले चन्द्रदेव को नमस्कार है : अनमय सरीरं सागर नंद हेतुं ।। कुमुद वन विकासी रोहीणी जीवतेस ।। भनलिज नस वंचुनिनी मान मद । रमति रजनि रसनं चंद्रमा ते नमामी ।। २३७, स० ३६, (ब) चन्द्र-ग्रहण समाप्त होने पर चन्द्रमा को सौन्दर्य एक स्थान पर । इस प्रकार चित्रित किया गया है-- ऊसलों की कला बंद हो गई, चक्रवाक चकित चित्त रह गये, चन्द्र-किरों ने कमुदिनी को विकसित किया, सूर्य की कला क्षीण हो बाई, सन्मों के बाणों के अधात मदोन्मत्त विश्व की रति ऐश्वर्यों के अंपग में बर्दी, जात निद्रा के वशीभूत है जिसमें काम और भक्त ये ही दो प्रकार के जन जागरण कर रहे हैं। { पृथ्वीराज ने भी अपनी बेलि' में लिखा है--निद्रावसि ग श्रेहु महानिसि जामि कामिझे जागरण' ) : मुदी सुई कमौद इसति कला, चक्कीय चक्के चितं । चेदं किरन कढ़त पोइन पिम, भाने कल? छीन ।। बानं मन्सथ मत्त रस जुराय, भौग्यं च ौ भबं । निल्ला अस्य ज्ञान भक्त जलय, वा अन्य काही न {{७, १० ३e