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| (अ) युद्धभूमि में रात्रि होने पर विकसित कमल श्रने दलों को बाँधकर सम्पुट रूप में हो गये, चक्रवाई वियुक्त हुए, चकोर ने इन्द्रदेव के वृत्त पर अपनी दृष्टि बाँधो, युवतः जन का पूरत हुई, पक्षी अंपर्ने नीड़ में चले गये, सुन्दरियों के सुन्दर नेत्रों के काम-कटाक्ष बड़े गये, निर्मल चन्द्र प्रकाश में उदित हुअा, राजा ने शूर सामंतों पर सेना की रक्षा का भार छोड़ा और सारे योद्धा विश्राम करने लगे : कुमुद घरि में दिय । सु बँधि सतपत्र प्रकार ।। चकिय चक्क विच्छुरहिं । चर्कि शशिवृत्त निहारय ।। जुवती जन चदि कीम् । जाहि कोतर तर पंधी ।। अबत्त वृत्त संदरिय | काम वढिढय वर अंत्री । नव नित्त हंस हंस मिलै । विमल चंद ग्थौ सु नभ ।। सामंत सूर उप रषि कै ; करहि वीर विश्राम सभ ।।६७५,स०२५ | (ब) रात्रि के समय जयचन्द्र की सभा की सजावट और शान का बर्णन छं० २३२-३४, ८० ६१ में देखा जा सकता है। प्रदोष रण-काल में सूर्यस्त होने एर, युद्ध रुक जाने के उपरान्त केभी रात्रि के प्रथम प्रहर का किंचित् बन कहीं-कहीं मिलता है और कहीं सन्ध्या होने के बाद भी युद्ध चलते रहने पर उसका उल्लेख या जाता है; अथवा निम्न ढंग के संकेत मिलते हैं : (अ) बार सोम पंचमी । जाम एकह निसि वित्तिय ||२७३, स७६१; (ब) भइत निसा दिन मुदित बिनु । उड़पति तेज विराज || कथक साथ कथ्थहि कथा । सुघ्ने सयन प्रथिराज ||२४, स०६१; (स) जाम एक निसि बीति वर । ले भट्ट नरिंद ।। ओसर पंग नरिंद कौ । देष अव कविंद ।।८२६., स०६१; चान्त । अन्धकार ) तम बढूिढय धंधर धरा ! पर पयं पन मुत्र ।। तम्भ तेज न्वादिसह । जुम्झनि भरिग अरुध्त्र ।।६७७, जुझझ भरि शारुष्य वर | रोकि रहिग बर स्यसि ।। सुबर सुर सामंत गुन । तभ पुच्छे चैप ताम ।।६७८, स०२५; यद्-भूमि की अँधेरी रात्रि में पतचरों, रुधिचरों और अंसचरों का कोलाहल इस प्रकार पाया जाता है :