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घोष होते ही वीर बर्ण अंकुरित हो गया परन्तु जव युद्ध के चारों ने कड़खा गया तब काबरों की दृष्टि भी बीरों-सदृश हो गई ।। भये प्रति रतिय, जुरत्त दीस, चंद मंद चंदयौ । भर तमुस तासस, सूर बर भरि, रसि तामस छंदयौं । बर बज्जियं नीसान धुनि घन बीर बरनि अँकूरवं । घर घरकि धाइर करत्रि काइर रसमि सूरस कुरयं ।।५८, सं० २७ | ( ब ) भीमदेव से युद्ध-काल में भयौ त बर नूर' की प्रशंसा कवि ने इस प्रकार की है---रात्रि में कमल के सम्पुट में बन्द हुए भ्रमर मुक्त होकर प्रसन्नता से गुजरने लगे, तारगिण विलीन हुए, तिमिर विदीर्ण हो गया, चन्द्रदेव अपचे ज्योत्स्ना रूपी गुण सहित अस्त हुए, दैव-कमें प्रगट हुए, वीरों की श्रेष्ठ कर्म सुनाई पड़ने लगा, चकवी ने वियोग का स्वर त्याग, उल्लू के नेत्र चौंधिवाने लगे, पौ फट गई, आकाश के तिमिरजाल का नाश हुश्रा, देवताओं की अर्चना हेतु शंखध्वनि होने लगी, अभी सूर्य का बिम्ब नहीं निकला था कि पक्षी वृक्षों में कलरव करने लगे : निस सुमार्थ सत पत्र । मुक्केि अलि श्रम तक सारस !! गये तारक फदि तिमिर । चंद भग्यौ गुन पारस ।। देव ऋम्म उध्धरहि । बीर बेर क्रम्म सुनिज्जाह ।। सोर चक्र तिय तजिये । नयन बुध्धू रस भिज्जह ॥ पहु कट्टि फाई गय तिम' नभ । बजिय देव धुनि संघ धुर ।। भय भान पनान न उधरौ । करहि रोर द्रुम पष्ष तर ||१६७,०४४ १ स ) पौ फट ई, तिमिर घट गया, सूर्य की किरणों ने अन्धकार का नाश कर दिया, पृथ्वी र उसे पाकर प्रहार करने के लिये उनका अाकाश में उदय हुन् । सूर्य का बिम्ब रक्ताम्बर दिखाई पड़ रही है; यह पंगराज का कलश नहीं है वरन् सूर्य का दूसरा गोला है : पहुं फट्य घट्टिम तिमिर । तमथूरिय र भान ।। पहुमिय याय प्रहरिन । उदी होत असमान {१२६६, रतंबर दीसै सुरबि । किरन परविर्य लेत ।। कलस पंय नहिं होय यह । बिथ रबि बंध्यौ नेत ।। ३००, स० ६१ दोपहर का बर्थन प्रात: और सायंकाल की भाँति विस्तृत और सौन्दर्य पूरा नहीं है । युद्धों के बीच में उसका उल्लेख मात्र हो जाता है । देखिये :